Saturday, September 30, 2017

नो 'अल्टर' नेटिव

(4 मिनट में पढ़ें)
पद्मश्री टॉम ऑल्टर
'मैं फिल्म लाइन में आया था राजेश खन्ना बनने के लिए, राजेश खन्ना तो बन नहीं पाया, पर कम से कम टॉम ऑल्टर तो बन गया. यह ज्यादा मुश्किल काम था. एक आदमी को जिंदगी से और क्या चाहिए? मैंने राजेश खन्ना के साथ एक्टिंग की, सुनील गावस्कर के साथ क्रिकेट खेला, शर्मिला टैगोर के साथ अभिनय किया, पटौदी साहब, मिल्खा सिंह से मिला, दिलीप कुमार, देव आनंद, राजकपूर के साथ काम करने मुझे का मौका मिला. ये जो जवानी के सारे सपने थे, वे पूरे हुए. मेरी तकरीबन 400 फिल्में रिलीज हुई हैं. उनमें मैंने अच्छे-बुरे, तमाम तरह के काम किए. यह सिलसिला आज भी चल रहा है. रोज सुबह उठकर दुआ करता हूं कि मरते दम तक यह सिलसिला चलता रहे. क्रिकेट को लेकर मेरी दीवागनी जबर्दस्त थी. मैं अपने आपको खुशनसीब मानता हूं कि मैंने सुनील गावस्कर के साथ खेला. सचिन तेंदुलकर का पहला इंटरव्यू किया. हालांकि मेरी दिली तमन्ना यही थी कि एक दिन मैं हिन्दुस्तान के लिए खेलूं, पर मैं उतना अच्छा खिलाड़ी बन नहीं पाया.  फिर भी हिन्दुस्तान के जो बड़े-बड़े खिलाड़ी हैं, जिन्हें मैं भगवान मानता हूं, उन सबके साथ खेलने का मौका मिला. चाहे वह अशोक मांकड हों, सोलकर हों, दिलीप वेंगसरकर हों, मोहिंदर अमरनाथ, सबा करीम हों या बिशन सिंह बेदी.
पिताजी के तीन सबक 
(1) एक बार हम लोग राजपुर में कहीं जा रहे थे. मैंने चलती कार से चॉकलेट खाकर उसका ‘रैपर’ बाहर फेंक दिया.  पिताजी ने कार रोकी और ‘रैपर’ को उठाकर लाने के लिए कहा. वह दिन है और आज का दिन है, कभी भी मैं कोई चीज सड़क पर नहीं फेंकता. (2) देहरादून में दीवान ब्रदर्स से हम खेल का सामान खरीदा करते थे. मैं जब 12-13 साल का था, एक दिन दुकान के मालिक दीवान जी से मैंने पूछा- ‘तुम्हारे पास कोई नया बैट है?’ पिताजी ने फौरन मेरा कान पकड़ा और कहा- ‘दीवान जी तुमसे कम से कम 40 साल बड़े हैं, तुम इनसे आप कहकर ही बात कर सकते हो.’ जो सबक उस रोज मिला, उसके बाद आज तक अगर कोई उम्र में मुझसे बड़ा है, तो मैं उनसे तुम कहकर बात नहीं कर सकता हूं. (3) एक बार मैं पिताजी के साथ यमुना में फिशिंग के लिए गया. वहां रेत बहुत थी, जिसकी वजह से हमारा स्कूटर फंस गया था. पिताजी उसे निकालने की अकेले ही कोशिश कर रहे थे और मैं बगल में चुपचाप खड़ा था. पिताजी ने थोड़ी देर बाद कहा- ‘खड़े होकर तमाशा मत देखो मेरी मदद करो.’ यह भी एक सबक था. अब तो मैं कुछ बूढ़ा हो गया हूं. जब जवान था, तब अगर सड़क पर कोई एक्सीडेंट मुझे दिखता, तो मैं वहां जाकर मदद करने की कोशिश जरूर करता.'
साभार- www.livehindustan.com 
#TomAlter   

राज्यपाल और मुख्यमंत्री एक साथ जूनियर मंत्री भी रहे

लोकसभा में कहा था, 'राजीव गांधी को 'अहीर' और 'यादव' के बीच फर्क तक नहीं पता'
(3.5 मिनट में पढ़ें )
बिहार के नवनियुक्त राज्यपाल सत्यपाल मलिक और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक साथ केंद्र में मंत्री भी रह चुके हैं. वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा वाली सरकार में दोनों बतौर राज्य मंत्री की भूमिका निभा चुके हैं. सत्यपाल मलिक संसदीय मामलों के व नीतीश कुमार कृषि राज्यमंत्री बनाये गये थे. इस लिहाज से अब बतौर राज्यपाल और मुख्यमंत्री दोनों के बीच बेहतर तालमेल की उम्मीद जताई जा सकती है. ऐसे उदाहरण कम ही सामने आते हैं. मालिक पुराने घाघ राजनेता हैं. राजीव गांधी को सत्ता से बेदखल करने के लिए वीपी सिंह की अगुवाई में बने जन मोर्चा में शामिल आठ नेताओं में सत्यपाल मलिक भी शामिल थे. इस कुनबे में वीपी सिंह के अलावा अरुण नेहरु, आरीफ मोहम्मद खान, मुफती मोहम्मद सईद, विद्या चरण शुक्ल, राम धन, राज कुमार राय और सत्यपाल मलिक शामिल थे. और इसमें सफल भी रहे. एक बार राजीव गांधी के खिलाफ लोकसभा में तंज कसते हुए उन्होंने कहा था, 'राजीव गांधी को 'अहीर' व 'यादव' के बीच फर्क तक नहीं पता.' वहीं मालिक ने वीपी सिंह मंत्रिमंडल से इस्तीफा तक दे दिया था. दरअसल, तमाम विरोधों के बावजूद चौधरी देवीलाल ने अपने पुत्र ओम प्रकाश चौटाला को दोबारा हरियाणा का  मुख्यमंत्री बना दिया था. इससे नाखुश अरुण नेहरु, आरीफ मोहम्मद खान के साथ सत्यपाल मलिक ने भी इस्तीफा दे दिया था. ओम प्रकाश चौटाला को हटाने के लिए देवीलाल ने इन तीनों नेताओं को भी हटाने की शर्त रखी थी. हालांकि वीपी सिंह इसके लिए तैयार नहीं हुए थे. अंत में पहले बेटे को सीएम पद और बाद में ताउ को खुद मंत्री पद गंवाना पड़ा. तत्कालीन एक ज्वलंत मसले  को लेकर मलिक ने 27 अक्तूबर को कैबिनेट की बैठक में वीपी सिंह पर बरसते हुए कहा था, ’आपको गुमराह किया गया है, हम विभाजन की विरासत छोड़े जा रहे हैं, जिसके लिए हमें कभी माफ नहीं किया जा सकता. मलिक समाजवादी पार्टी होते हुए साल 2004 में भाजपा में शामिल हुए. पार्टी अध्यक्ष अमीत शाह ने उन्हें भूमि अधिग्रहण विधेयक के संबंध में किसानों से चर्चा की अहम जिम्मेवारी सौंपी थी. मलिक अब पार्टी मुख्यालय के बजाए राजभवन का शोभा बढाएंगे.

Friday, September 29, 2017

लाखों शब्दों को बयां करती कश्मीर से आई यह तस्वीर

अंग्रेज़ी में एक कहावत है – 'an image is worth a thousand words' यानी जिस बात को कहने के लिए आपको हज़ार शब्द लंबा लेख लिखना पड़े, वह बात एक अकेली तस्वीर कह सकती है. या कभी-कभी, कोई इकलौती तस्वीर किसी जटिल मसले के सार को ऐसे बयां कर सकती है, जो लाखों शब्द भी नहीं कर सकते. लेकिन मुझे तो लगता है कि कश्मीर से आई एक तस्वीर ने वह बात कह दी है जिसको लाखों शब्दों में लिखा जाता तो भी कई लोग उसे नहीं समझते.
कश्मीर के पत्थरबाज युवकों को इस तस्वीर से प्रेरणा लेनी चाहिए. हाथों में पत्थर नहीं इस नन्ही बच्ची की तरह किताब हो....    

सिन्हा को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं जेटली

आठ साल पहले विरोध में दे दिया था इस्तीफा 
(3 मिनट में पढ़ें )
2009 लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी पीएम इन वेटिंग थे. भाजपा चुनाव प्रबंधन का कमान अरुण जेटली के हांथों में था. चुनाव में करारी हार के बावजूद जेटली को राज्यसभा में विपक्ष का नेता बना दिया गया. फिर क्या? सिन्हा ने खुले जंग का एलान कर दिया. जेटली की नियुक्ति से नाखुश सिन्हा ने बुधवार, 10 जून, 2009 को पार्टी कोर कमिटी की बैठक में जेटली के खिलाफ जमकर भड़ास निकला. इसके बाद 12 जून, 2009 को तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह को चार पेज के पत्र में पार्टी के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी और अध्यक्ष पर सीधा हमला बोल दिया. इस पत्र में उन्होंने पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के खात्मे और हराऊ रणनीति बनाने वाले पार्टी महासचिव अरुण जेतली को पुरस्कृत करने और जमीनी नेताओं की उपेक्षा के गंभीर आरोप लगाया. पत्र का मजमून कुछ ऐसा था, 'ऐसा प्रतीत होता है कि पार्टी में कुछ लोगों यह सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं कि उत्तरदायित्व का सिद्धांत प्रबल नहीं होता, ताकि उनका छोटा सा कुनबा प्रभावित न हो.इतना ही नहीं सिन्हा ने पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद, राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्यता तथा कर्नाटक के प्रभारी पद से भी अपना इस्तीफा दे दिया. सिन्हा का इस्तीफा राजनाथ ने मंजूर कर लिया. इस पर सिन्हा ने कहा था, 'मुझे अहसास हो रहा है कि एक बार फिर मौन की साजिश हो रही है. हम अपनी कमजोरियों को गिनाने और जवाबदेही तय करने से बच रहे हैं'. इंडियन एक्सप्रेस में सिन्हा का हालिया लेख “I need to speak up now” में 'उनका(जेटली) अमृतसर से चुनाव हराना भी उनके वित्तमंत्री बनने के आड़े नहीं आया.' लिखना एक बार फिर आठ साल पहले का दर्द छलकता नजर आ रहा है.  यूपीए सरकार के दौरान वोडाफोन विवाद को लेकर इनकम टैक्स कानून में संसोधन पर भी जेटली और सिन्हा आमने- सामने थे. सिन्हा संसोधन के पक्ष में थे जबकि जेटली विरोध में. गौरतलब है की वर्ष 2005 में भी जिन्ना विवाद को लेकर आडवाणी के खिलाफ यशवंत सिन्हा ने बागी तेवर अपनाया था. 

Thursday, September 28, 2017


'बबूके वो रहा हूं'

(4 मिनट में पढ़ें )
पिता की उंगली छोड़ वह खेत में बैठ गया और पौधों की तरह छोटे-छोटे तिनके जमीन में गाड़ने लगा. क्या कर रहे हो बेटे, पिता ने पूछा? 'बबूके बो रहा हूं', बालक ने तुतलाते हुए बड़े भोलेपन से उत्तर दिया. दरअसल, एक दिन अपने पिता सरदार किशनसिंह और उनके मित्र के साथ खेत पर गए थे, जहां नया बाग लग रहा था. आम के पौधे रोपे जाते देख तो वे भी तिनके रोपने लगे, पर जब पिता ने पूछा तो उत्तर मिला, 'बबूके वो रहा हूं'. उम्र अभी केवल ढाई-तीन साल की ही थी. बंदूक शब्द का उच्चारण करना भी नहीं आता था उसे बंदूक से करते क्या है यह तो बात ही दूसरी थी. दोनों ने आश्चर्य से एक दूसरे की ओर देखा और फिर एक बार बालक को बड़े प्यार से निहारा. कुछ देर बाद बालक अपनी तिनके वाली बबूकें बोकर उठा और फिर अपने पिता के साथ-साथ चलने लगे. बालक भगत सिंह बड़ा हो कर क्या होने जा रहा है, इसकी घोषणा उसने स्वयं ही कर दी थी. पढकर-सुनकर आश्चर्य होता है कि इतने छोटे बालक ने बंदूक की बात सोची कैसी, जबकि बंदूक कहना भी उसे नहीं आया था. पर शायद भगत सिंह के मुख से बंदूक शब्द का निकलना कोई अनहोनी बात नहीं थी, क्योंकि यह सब तो उनको रक्त में ही मिला था. सदियों से उनका परिवार अपनी विरता के लिए प्रसिद्ध था और पिछली दो पीढियों से अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध लड़ रहा था. जिस परिवार की दो-दो पीढियां स्वतंत्रता के लिए रक्त बहा चुकीं थीं, जो टूट गए पर झुके न हों, गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंकने का संकल्प जिनके हर सांस में भरा था, ऐसे परिवार में जन्म लेकर यदि भगत सिंह ढाई वर्ष की उम्र में ही बंदूक बोने लगे तो क्या आश्चर्य. उसी परिवार में जहां सरदार किशन सिंह, सरदार अजीत सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह पहले से ही क्रांतियज्ञ की वेदी सजाए बैठे थे. भगत सिंह का जन्म शनिवार 28 सितंबर 1907 प्रातः 9 बजे के लगभग बंगा गांव, जिला लायपुर में हुआ. उन दिनों भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह और चाचा सरदार स्वर्ण सिंह जेल में थे. संयोगवश वे दोनों उसी दिन जेल से रिहा हुए. चारों ओर से बधाई की आवाजें गूंज उठीं. जो भी आया उसी ने बालक की दादी श्रीमती जयकौर से कहा,  'मांजी आपका पोता बड़ा भाग्यवान है, इसके आने के साथ ही आपके बेटे भी घर आए हैं.
साभार - प्रकाशन विभाग, भारत सरकार (1974)  

Wednesday, September 27, 2017

डॉ साहेब के लिए जैसे 2012 था, क्या वैसे ही मोदी के लिए 2022 है?

(3 मिनट में पढ़ें )
यह महज इत्तेफाक है या पूर्ववर्ती या वर्तमान सरकार की एक जैसी कार्य प्रणाली? या एक जैसी राजनीतिक रणनीति? पूर्व पीएम डाॅ. मनमोहन सिंह ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान लगभग हरेक महत्वपूर्ण योजनाओं की कार्यावधि वर्ष 2012 निर्धारित की थी. अब वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार भी इसी लकीर पर चलते हुए वर्ष 2022 को अपने महत्वकांक्षी योजनाओं को पूरा करने का लक्ष्य निर्धारित कर रही है. यूपीए प्रथम कार्यकाल के बाद तीसरे साल योजनाओं को पूरा करने की मियाद तय की गयी थी. अब इसी प्रकार मोदी सरकार भी 2019 के बाद तीसरे साल. है न एक जैसी मियाद. मोदी 2019 आम चुनाव में अपनी जीत पक्की मान रहे हैं. मोदी ने कहा है, 2022 में देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है. ऐसे में सभी लंबित परियोजनाएं हर हाल में 2022 तक पूरी हो जानी चाहिए. वहीँ लगभग सभी महत्वकांक्षी योजनाओं मसलन, सबके लिए आवास, बुलेट ट्रेन, हर घर बिजली, किसानों की आय में दोगुनी वृद्धि, स्वच्छ भारत, ओटीएफ, कालेधन से मुक्ति, आतंक, नक्सल व कश्मीर समस्या से मुक्ति, गरीब कल्याण योजना, कौशल विकास, स्मार्ट सिटी, सौर उर्जा, नमामदी गंगे के तहत गंगा किनारों को शौच मुक्त, आदी सहित सौ से ज्यादा योजनाओं को पूर्ण करने की मियाद 2022 तय की गयी है. यानी मोदी की शब्दों में कहें तो देश 2022 में न्यू इंडिया बनकर उभर जायेगा. यूपीए प्रथम सरकार ने भी 70 से अधिक योजनाओं मसलन, निर्मल भारत योजना, राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण, भारत निर्माण के तहत सभी को पेयजल ग्रामीण संचार सुविधा, सभी गांवों को सडक से जोडना, सिंचाई आदि को पूर्ण करने का वर्ष 2012 तय किया था. दोनों सरकार इस मामले में न सिर्फ एक लकीर पर चलती नजर आ रही हैं, बल्कि योजनाओं के नाम भले ही परिवर्तित हों लेकिन एक जैसी भी हैं. अब ऐसे में सवाल खड़ा होना लाजमी है कि क्या प्रथम कार्यकाल की समाप्ति के तीन साल बाद मियाद तय करना किसी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है? ताकि मतदाताओं को हिसाब न देना पड़े. और अंत में क्या डॉ साहेब या असली कांग्रेसी रणनीतिकार मोदी के गुरु साबित हो रहे हैं? 

Tuesday, September 26, 2017

बिग बी, हर बार 'नो' का मतलब 'नो' नहीं होता

(3 मिनट में पढ़ें )
 वकील दीपक सहगल अदालत में दमदार बहस पेश करते हैं, ‘ना सिर्फ एक शब्द’ नहीं है, एक पूरा वाक्य है अपने आप में...इसे किसी व्याख्या की जरूरत नहीं है. नो मीन्स नो...परिचित, फ्रेंड, गर्लफ्रेंड, सेक्स वर्कर या आपकी अपनी बीवी ही क्यों न हो...नो मीन्स नो‘. इसी ‘ना’ को आधार बना कर दीपक सहगल अपने तर्क गढ़ते हैं और सरकारी वकील के सारे आरोपों को निरस्तर करते हैं. वकील भी नकली. अदालत भी नकली. असल नहीं फ़िल्मी जिंदगी. और डायलॉग? फिल्म 'पिंक' में दीपक सहगल के किरदार में महानायक अमिताभ बच्चन का यह संजीदा डायलॉग लोगों के जेहन में घर कर गया था. इसके बाद अमिताभ बच्‍चन ने कई कार्यक्रम में दोहराया कि जब भी कोई महिला ना कहती है तो उसका मतलब ना ही होता है. लेकिन क्या वाकई असल जिंदगी, असली अदालत, असली जज, असली वकील, असली फैसला में 'नो' का मतलब हमेशा 'नो' ही होता है? कम से कम विदेशी छात्रा से रेप के आरोपी पिपली लाइव फिल्म के सह-निर्देशक महमूद फारूकी को बरी करने के मामले में तो नहीं. इस मामले में फैसला सुनते हुए दिल्ली हाइ कोर्ट के जज आशुतोष ने बेहद अहम टिप्पणी करते हुए कहा, 'हर बार 'नो' का मतलब 'नो' नहीं होता. महिला का 'नो' फारूकी के लिए स्पष्ट नहीं था. हर बार 'नो' का मतलब 'नो' नहीं होता है. ऐसे भी कई उदाहरण हैं, जब महिला द्वारा एक कमजोर 'नो' का मतलब 'यस' भी हो सकता है. निर्भया केस के बाद कानून में हुए संशोधन में किसी की सहमति में 'हां' और 'ना' का बहुत बड़ा स्थान हो गया है. इसलिए किसी की 'ना' को हमेशा ही 'ना' नहीं माना जा सकता. कई बार 'ना' में 'हां' भी होता है. साथ ही हाईकोर्ट ने फारूकी की यह दलील भी माना कि वह बाईपोलर डिसऑर्डर (जल्द फैसला लेने में अक्षम ) नामक मानसिक रोग से ग्रसित है. वह यह नहीं समझ पाया कि छात्रा की सहमति थी या नहीं. इस बीमारी से ग्रसित लोग जरूरी नहीं है कि सामने वाले की बात उस संदर्भ में ही लें जिस संदर्भ में वह कह रहा है.

Monday, September 25, 2017

वह तो पत्थरबाज नहीं लोकतंत्र को मजबूत करने वाला मतदाता निकला

(3 मिनट में पढ़ें )
’मैं पत्थरबाज नहीं हूं. मैंने अपने जीवन में कभी एक ढेला तक किसी पर नहीं फेंका. मैं तो शॉल पर कढाई का काम करता हूं और थोड़ा - बहुत बढई का काम जानता हूं. मैं यही करता हूं.’ - फारुक अहमद डार. मेजर लितुल गोगोई द्वारा कश्मीर में पत्थरबाजों से निपटने के लिए एक युवक को जीप से बांधकर ढाल की तरह इस्तेमाल करने वाली तस्वीर याद है? वह युवक फारुक अहमद डार ही था. पुलिस जांच से तथ्य सामने आया है कि डार पत्थरबाजों का रिंग लिडर नहीं (जैसा बताया गया था), बल्कि आम वोटर था. जांच के दौरान पाया गया कि पीड़ित डार अपने गांव चिल में मतदान करने के बाद मित्र हिलाल अहमद के साथ गमपोरा में आयोजित एक शोक सभा में शामिल होने निकला. दरअसल, गत 9 अप्रैल को उप चुनाव के दौरान बीरवाह पुलिस थाना इलाके में कई जगहों पर पत्थरबाजी की घटना हुई. शोक सभा से लौटने के दौरान उटलीगाम में उसे आर्मी ने उठा लिया. इसके बाद की तस्वीर देश भर में लोगों के जेहन में आज भी कैद है. आउटलुक से बात करते हुए डार ने कहा कि उस दिन सुबह वोट डालने के बाद मां के साथ चाय पी. और पडोसी गांव शोक सभा में शामिल होने चल दिया. मैंने 2014 में भी वोट डाला था, ताकि गांव में अच्छी सड़क बन सके. पुलिस की जांच रिपोर्ट बडगाम के एसएसपी ने राज्य के डीजीपी को पिछले महीने ही सौंप दिया है. 9 अप्रैल की घटना के बाद मेजर गोगोई ने घटनाक्रम बताया था, खुद से करीब 30 मीटर की दूरी पर एक शख्स दिखा, जो पथराव करने के साथ साथ भीड़ को उकसा रहा था. इसके बाद उन्हें अपनी क्विक रेस्पॉन्स टीम के साथियों से उस शख्स को पकड़ने के लिए कहा. जिसे बाद में जीप से बांधा गया था. ऐसा करते ही पत्थरबाजी रुक गई और उन्हें सभी पोलिंग अफसरों और सुरक्षाकर्मियों को लेकर वहां से निकलने का मौका मिल गया.अगर वह फायरिंग का आदेश देते तो कम से कम 12 लोग मारे जाते. राज्य सरकार डार को दस लाख रूपये देने वाली है. 

पोलिटिकल फैमिली प्लानिंग? राजनीतिक परिवार नियोजन?

(3.5 मिनट में पढ़ें) 
x
बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने वंशवाद पर दिए गए बयान को लेकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को निशाने पर लिया. उन्होंने कहा, 'राहुल भारत की गरिमा को नकार रहे हैं. वंशवाद कांग्रेस की संस्कृति है. वह देश को वंशवाद ही देना चाहते हैं, लेकिन देश की जनता वंशवाद की राजनीति को नकारती है.' गौरतलब है कि पिछले दिनों अमेरिकी दौरे पर गए राहुल गांधी ने बर्क्ली यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स को संबोधित करते हुए कहा था कि भारत में अधिकांश पार्टियों के अंदर वंशवाद की समस्या है. पूरा देश ऐसे चल रहा है. अब आइए कुछ आंकड़ों पर गौर करें. 2014 लोकसभा चुनाव में 22 फीसदी वंशवादी राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले सांसद चुन कर आये. इन सांसदों का ताल्लुक लगभग सभी राजनीतिक दलों से है. निःसंदेह इनमें कांग्रेस सबसे आगे रही. 48 फीसदी,  इसके सांसद वंशवादी पृष्टभूमि से हैं. भाजपा भले ही वंशवादी राजनीति से खुद को अछूती पार्टी बताती हो, लेकिन सच्चाई ऐसा है नहीं. 15 फीसदी इसके सांसद वंशवादी हैं. सांसदों की संख्या के लिहाज से देखें, तो इस मामले में भाजपा कांग्रेस से कहीं आगे हैं. पूर्व पीएम वाजपेयी के सम्बन्धी करुणा शुक्ला व अनुप मिश्रा भाजपा के सांसद रहे. कई मुख्यमंत्रियों व पूर्व के पुत्र भी इस श्रेणी में आते हैं. कल्याण सिंह, वसुंधरा राजे, रमन सिंह, प्रेम कुमार धुमल, भैरों सिंह शेखावत, साहेब सिंह वर्मा, बीएस येदियुरप्पा, बाबुलाल गौर और सुंदरलाल पटवा आदि. हां , मौजूदा दौर में पार्टी के अग्रिम पंक्ति में वंशवादी पृष्ठभूमि वाला शायद कोई नेता विराजमान नहीं है.
अन्य दलों  एक नजर दौरा लिया जाये. यूपी और बिहार की ही बात नहीं है. पंजाब, कश्मीर, महाराष्ट्र, हरियाणा, कर्नाटक, ओडीशा, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना- गिनेचुने राज्य ही होंगे जहां हमें वंशानुगत राजनीति के कोई उदाहरण नहीं मिलते. जैसे त्रिपुरा, बंगाल, केरल या दिल्ली और कुछ पूर्वोत्तर के राज्य. गांधी परिवार के अलावा यूपी में यादव परिवार, बिहार में लालू परिवार, पंजाब में बादल, महाराष्ट्र में ठाकरे और पवार, ओडीशा में पटनायक और तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति में वंशवाद के सबसे बड़े खिलाड़ी परिवार बने हुए हैं. ब्रिटिश लेखक और इतिहासकार पैट्रिक फ़्रेंच ने अपनी 2011 में आई मशहूर किताब इंडियाः अ पोट्रेट में लिखा था कि 'वह दिन दूर नहीं जब भारत में एक तरह से राजशाही जैसी कायम हो जाएगी. ऐसा समय जहां पीढ़ीगत व्यवस्था के तहत कोई शासक गद्दी पर होगा. उन्होंने तो ये आशंका भी जाहिर कर दी थी कि भारतीय संसद कुनबों का सदन हो जाएगा.' अंत में यक्ष प्रश्न, नेताजी पोलिटिकल फैमिली प्लानिंग अर्थात राजनीतिक परिवार नियोजन कब करवाएंगे? 

Sunday, September 24, 2017

विदा हो रहे वीसी त्रिपाठी तो एमएचआरडी की भी नहीं सुनते

(2 मिनट में पढ़ें )
बीएचयू छात्राओं की जायज मांग पर शर्मनाक लाठीचार्ज के बाद यूनिवर्सिटी के वीसी जीसी त्रिपाठी के बारे में कई खबरें सामने आईं. लेकिन, उनसे जुडी हुई यह खबर नाफरमानी की एक बड़ी मिसाल पेश करती नजर आ रही है. यूनिवर्सिटी के नये वीसी की नियुक्ति संबंधी विज्ञापन पर कुंडली मार कर बैठे हैं. दरअसल, गत एक अगस्त को ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय के हाइयर एजुकेशन डिपार्टमेंट द्वारा नये वीसी की नियुक्ति संबंधी विज्ञापन प्रकाशित करने का आदेश पत्र के तौर पर निर्गत किया गया था. विज्ञापन अखबारों सहित यूनिवर्सिटी के वेबसाइट पर चस्पा करने का आदेश दिया गया था. एक सज्जन हरिकेष बहादुर की शिकायत पर इस राज से पर्दा उठा. बहादुर के अनुसार, यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार नीरज त्रिपाठी जानबूझकर विज्ञापन पर कुंडली मार कर बैठे रहे, ताकि नये वीसी की नियुक्ति में अनावश्यक विलंब हो. और नवंबर में समाप्त हो रहा उनका कार्यकाल बढा दिया जाये. त्रिपाठी रजिस्ट्रार बनने से पहले वीसी साहब के पर्सनल असिस्टेंट हुआ करते थे. इस प्रकरण पर यूनिवर्सिटी पीआरओ राजेश सिंह कहते हैं, हर कार्य विभागीय चैनल व निर्धारित मानदंड के आधार पर किया जाता है. इसलिए विलंब स्वाभाविक. हाइयर एजुकेशन डिपार्टमेंट के पत्र में कोई तारीख तो निर्धारित नहीं है.

लेकिन, क्या सड़ चुकी राजनीति को शैक्षणिक संस्थानों में सड़ांध फैलाने की इजाजत मिलनी चाहिए?

(4 मिनट में पढ़ें ) 
सही मायने में देश के विश्वविद्यालयों के अहातों में कौन संघर्षरत हैं? छात्र या राजनीतिक दल जो छात्रों के जरिए अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं? भाजपा, कांग्रेस व सीपीआइ (एम) की छात्र इकाई क्रमशः एबीवीपी, एनएसयूआइ व एसएफआई? छात्रों को अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने की पूरी आजादी मिलनी चाहिए. लेकिन, क्या सड़ चुकी राजनीति को शैक्षणिक संस्थानों में सड़ांध फैलाने की इजाजत मिलनी चाहिए? छात्र आजाद पक्षी हैं और उन्हें अपने हक व अपनी राह चुनने की आजादी बगैर किसी बाहरी प्रभाव मिलनी चाहिए. बगैर कुछ लिखे काली स्लेट की तरह, जिस पर उन्हें खुद लिखने की छूट मिले. लेकिन, जैसे ही कोई छात्र किसी राजनीतिक इकाई से जुड जाते हैं, वैसे ही उनके विचारों का अपहरण हो जाता है. और आपकी पहचान एक खास प्रतिक या चिह्न से जुड़ जाती है. जो विचारधारा और व्यवहार को दिशा देने लगते हैं. विकासशील माइंड की धार को कुंद करने जैसा है. कैंपस में कई छात्र राजनीति से दूर रहना चाहते हैं. यह उनके अधिकार क्षेत्र में भी है. लेकिन, मौजूदा माहौल उनके चाहने और ना चाहने से कोई वास्ता नहीं रखता. उन्हें राजनीति के चूल्हे में ईंधन की तरह जलना ही पड़ता है. कैंपस की राजनीति उन्हें प्रभावित करती है. जो छात्र केवल पढाई से वास्ता रखना चाहते हैं, उनके करियर को अल्पसंख्यक राजनीतिज्ञ छात्रों द्वारा अपहरण किया जा रहा है. कैंपस राजनीति से राजनीति के क्षेत्र में बामुश्किल एक फीसदी छात्र सफलता का परचम लहरा पाते हैं. ऐसे में 99 फीसदी छात्रों का क्या? 70 का का दौर अलग था. लेकिन, अब वक्ता काफी बदल चुका है. विदेशी यूनिवर्सिटी कैंपस में अगर आप हिंसा में शामिल पाये जाते हैं, तो आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, लेकिन अपने देश में ऐसा नहीं है. अगर आप हिंसा में लिप्त पाये जाते हैं, तो आपके राजनीतिक आका आपके बचाव में आगे आ जाते हैं. यह लाइसेंस प्रदान करने जैसा ही है. फिलहाल विभिन्न यूनिवर्सिटी कैंपस से हिंसा-आगजनी, हत्या-आत्महत्या, अशिष्टता के मामले ज्यादा सामने आ रहे हैं. यह सही नहीं है. महाविद्यालय व विश्वविद्यालय बहस के लिए उपयुक्त स्थल हैं. जहां पुराने-नये विचारों के आधार पर बहस जायज है. लेकिन जैसे ही राजनीति की इसमें घुसपैठ हो जाती है, बहस तू तू मै मै से ज्यादा कुछ बच नहीं जाता. क्या मौजूदा दौर में कैंपस में छात्र इकाईयों के बीच बहस होता देखा या सुना गया है? इससे कुछ भी हांसिल नहीं होने वाला. कैंपस के अभिभावक यानी वीसी से लेकर निर्णय लेने वाले तमाम अधिकारी व शिक्षकगण भी राजनीतिक संलिप्तता या दबाव की वजह से उचित निर्णय लेने से बचते हैं. इन सब का असर पढाई पर दिख रहा है. बेशकीमती समय हड़ताल, राजनीतिक बहस व टकराव के भेंट चढ़ जा रहे हैं. समय आ गया है, निर्णय लेने का.... 
#BHU 

Friday, September 22, 2017

पेट्रोल पंप पर मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाएगी घटतौली


(2 मिनट में पढ़ें )
हम अक्सर पेट्रोल पंप पर अपने वाहनों में तेल भरवाते समय घटतौली के भय से सशंकित रहते हैं. बढ़ी कीमतें तो और मुश्किलें बढ़ने वाली हैं. उत्तर प्रदेश पेट्रोल पंपों के चिप कांड के बाद तो आम उपभोक्ताओं का भरोसा ही ख़त्म सा हो गया. लेकिन जल्द ही इस घटतौली के भय से मुक्ति मिलने वाली है. पेट्रोल पंप वाले के लिए अब पेट्रोल डीजल की चोरी कर पाना नामुमकिन हो जायेगा. दरअसल, इंडियन ऑयल इसके लिए टेंपर प्रूफ पल्स टेक्नोलाॅजी का इस्तेमाल पेट्रोल पंप पर करने वाला है. कंपनी द्वारा एक विशेष चिप का ट्रायल किया जा रहा है. फ़िलहाल पांच राज्यों के कई पेट्रोल पंप पर इसका ट्रायल चल रहा है. इसके लिए मशीनों में मैगनेटिक पल्सर चिप लगाए गए हैं. इस चिप को पेट्रोल पंप में लगा देने के बाद अगर पम्प डिसप्ले बोर्ड पर दिख रहे आंकड़े से कम मात्रा में ईंधन देना चाहेगा, तो मशीन काम करना बंद कर देगी. ऐसे में उसे उचित मात्रा में पेट्रोल डीजल आपके वाहन में डालना ही होगा. होता यह है कि अगर मशीन से किसी भी तरह की छेड़छाड़ किये जाने पर पल्सर चिप खुद ब खुद नष्ट हो जाती है और इसके साथ ही मशीन से पेट्रोल, डीजल निकलना बंद हो जाता है. अगर यह ट्रायल सफल रहा तो इसे देश भर में लागू किया जायेगा.

Thursday, September 21, 2017

मोदीजी बडी नाइंसाफी है. यहां एक वाइन शॉप खोल दें...

...  यहां की सड़कें भी बन गईं. स्कूल भी बन गये. काॅलेज भी बन गये. अब यहां अनंतनाग में एक वाइन शॉप भी खुलना चाहिए. लड़कों को श्रीनगर जाना पड़ता है. दिन भर दो सौ यहां से किराया, सौ वहां से किराया. एक बोतल के लिए श्रीनगर जाते हैं. यह नाइंसाफी है. श्रीनगर के लिए वाइन शॉप और अनंतनाग के लिए नहीं. इसलिए मैं गवर्नमेंट से अपील करता हूं, मोदीजी को अनंतनाग में एक वाइन शॉप खोलें. ताकि यहां के लड़कों को सहुलियत मिले. यहां पांच सौ रुपये बेचते हैं, ब्लैक में दारू. वहां ढाई सौ रुपये में लातेे हैं और यहां पांच सौ में बेचते हैं. यहां अंजार बननी चाहिए...  पार्क बननी चाहिए... पुलें बननी चाहिए... यहां अमन और तरक्की होनी चाहिए. यहां गाना-साना होना चाहिए....

Wednesday, September 20, 2017

असंसदीय सांसदों का फास्टेट फिंगर फर्स्ट

(तीन मिनट में पढ़ें )
'असंसदीय' भाषा. यह गुजरे दिनों की बात हो गई! आवाजें गुम हो चुकी हैं. इसकी जगह अब हमारी उंगलियों ने ली हैं. खासकर, राजनीतिज्ञों का फास्टेट फिंगर फर्स्ट तो लाजवाब है. आज के सोशल मीडिया के दौर में असंसदीय सांसदों की फेहरिस्त काफी लंबी होती जा रही है. देश की सबसे बड़ी दो पार्टियों के नेताओं के बीचं एक दूसरे पर सियासी वार का हथियार बन चुका ट्विटर अभद्रता व असंसदीय मिसाइलों का लॉन्चिंग पैड बन चुका है. यूपीए शासन काल के दौरान मनीष तिवारी एक ऐसे नेता थे, जिन्हें हमलोग अमूमन रोजाना न्यूज चैनलों, अखबारों में देखते-पढते रहते थे. लेकिन, अब उनके ट्वीट! बीप...बीप... चू %%##-ः कुछ लोगों ने उन्हें प्रतिक्रिया में 'ट्वीट - लादेन' की संज्ञा से भी नवाजा. तिवारी के सीनियर बयानवीर दिग्विजय सिंह. उनका तो कहना ही क्या? सब जगजाहीर है. जिन शब्दों को परिवार के लोगों के साथ साझा करने में शर्मिंदगी होगी, उन्हें वे सार्वजनिक तौर साझा कर रहे हैं. वहीं दिल्ली के जेंटलमैन सीएम अरविंद केजरीवाल. पीएम मोदी को कायर, मनोरोगी... तक बता डाला. इस कड़ी में हमारे तकनीकी व देश के प्रधान सेवक पीएम मोदी भी अछूते नहीं हैं. ट्विटर पर बदजुबानी करने वाले लोगों को फॉलो करना. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर बाथरुम में रेन कोट पहनकर नहाने वाला बयान. लेफ्ट हो या राइट अनादर व हिंसा का पाठ पढाने में कोई पीछे नहीं है. गायक अभिजीत का ही उदाहरण याद कर लिजिए. जेएयू प्रकरण में उनके ट्वीट. लज्जा... आज के अधिकतर नेता और गौरव दो समानांतर लाइन जैसे हो गये हैं, जो एक दूसरे से कभी मिलते ही नहीं दीखते. नेता व गौरव एक पटरी पर चलने वाले नेता की कड़ी शायद पूर्व पीएम वाजपेयी तक ही द एन्ड. आजादी के बाद के नेताओं के संघर्ष का मुकाबला आज के नेता क्या खाक करेंगे? तमाम मुश्किलातों व झझावतों के बावजूद उन लोगों ने कभी आपा नहीं खोया. तमाम मतभेदों व विरोधों के बावजूद उन लोगों की शालीनता हमारे लिए अनुकरणीय है. वहीं महिला नेता भी असंसदीय मुकाबलों में अपने समकक्ष पुरुष नेताओं से कहीं कम नहीं दिखतीं. शायना एनसी के कुछ ट्वीट्स याद हैं? आज के हमारे नेता गांधीजी के तीन बंदरों की पंरपरा से बहुत दूर आ गये हैं.
संदर्भ साभार - ज्योत्सना मोहन भार्गव


Saturday, September 16, 2017

मोदी का व्यक्तित्व उनके प्रति विकर्षण पैदा करता है

हैप्पी बर्थ डे 'पीएम मोदी'
(3 मिनट में पढ़ें )
नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का एक अलग पहलू है, जो उनके व्यक्तित्व के प्रति विकर्षण पैदा करता है. हालांकि इस विकर्षण की वजह से जो प्रतिक्रियाएं पैदा हो रही हैं, वह मोदी की ताकत बन रही है. ऐसा पहले भी होता रहा है. मोदी का नाम घर-घर पहुंचाने का काम जितना समर्थक नहीं कर रहे हैं, उससे ज्यादा विरोधी कर रहे हैं. इस कड़ी में जाति-बिरादरी मायने नहीं रखती. इसकी जो अंतः क्रिया हो रही है, उसने नरेंद्र मोदी को सेंटर स्टेज पर ला खड़ा किया है. अभी तक मोदी ने जो बातें कहीं हैं, वे बातें संभवतः साधारण लोगों को अपील करने वाली हैं. मोदी नीतियों में मोटे तौर पर बदलाव से ज्यादा कारगर अमल की बात कर रहे हैं. उर्दू साप्‍ताहिक नई दुनिया से एक साक्षात्कार में मोदी ने कहा था, 'हम खुद अपने लिए चलैंज हैं, क्योंकि हम ने मैयार (बेंचमार्क) इतना बुलंद कर दिया है लोग हमारे मैयार पर हमें नापते हैं. मोदी 16 घंटे काम करता है, तो लोग कहते हैं 18 घंटे क्यों नहीं करता? लोगों की एक्स्पेक्टेशन नरेंद्र मोदी से बहुत ज़्यादा हैं. हमें खुद अपने रिकॉर्ड तोड़ने पड़ते हैं.' आप उन्हें पसंद करते हों या उनके आलोचक हों लेकिन व्यावहारिक रूप में वह हर समाचार के केंद्रीय विषय रहे हैं. यह अपने आप में एक उपलब्धि है. आप बेशक उनसे असहमत हों पर जो बातें वह कह रहे हैं वे आपको पूरी तरह मंत्रमुग्ध किए रखती हैं. बीच-बीच में उनकी शैली बेशक नाटकीय हो जाती है, कभी-कभार उनका विषय-वस्तु घिसा-पिटा हो जाता है और उनकी बातों में दोहराव आ जाता है. शी जिनपिंग से लेकर बराक ओबामा, शिंजो अबे से लेकर स्टीफन हार्पर और टोनी एबट से लेकर फ्रांसुआ ओलांदे तक के बिल्कुल ही अलग-अलग किस्म के नेताओं के साथ जिस सहजता और कौशल के साथ उन्होंने सुर-ताल बैठाया है वह अपने आप में कमाल है. जिस व्यक्ति को राजनीतिक रूप में कभी अछूत समझा जाता था उसके लिए यह उपलब्धि लगभग असंभव को संभव करने जैसी है. प्रधानमंत्री में अथाह ऊर्जा भरी हुई है. कभी छुट्टी न करने वाली उनकी बात हो सकता है कि मात्र हेकड़ी ही हो, तो भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि वह थकने का नाम नहीं लेते.


 

Friday, September 15, 2017

असम 'प्रणाम'. माता - पिता की नहीं उठाई जिम्मेदारी तो कटेगी 10 -15% सैलरी.

(2 मिनट में पढ़ें ) 
x
अगर असम राज्य का कोई सरकारी सेवक अपने माता-पिता (आश्रित) की जिम्मेदारी उठाने से भागता है, तो उसकी सैलरी से 10 फीसदी रकम काट कर उसे मां-बाप के खाते में डाल दिया जायेगा. इसके अलावा अगर सेवक अपने ऊपर आश्रित दिव्यांग भाई या बहन की भी जिम्मेदारी उठाने से भागता है तो उसकी सैलरी से 5 फीसदी रकम की अतिरिक्त कटौती होगी. देश में पहली बार इस तरह का कोई कानून बनाया गया है. यह ऐतिहासिक कानून असम की सर्वानंद सोनोवाल सरकार ने  बनाया है. 126 सदस्यों वाली असम विधानसभा ने गत शुक्रवार को असम एम्पलॉयीज पैरंट्स रेस्पॉन्सिबिलिटी ऐंड नॉर्म्स फॉर अकाउंटैबिलिटी ऐंड मॉनिटरिंग बिल-2017  'प्रणाम' को  पास किया. विधानसभा में चर्चा के दौरान स्वास्थ्य व वित्त मंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा ने कहा कि उनकी सरकार को यह मंजूर नहीं कि कोई भी शख्स अपने बुजुर्ग मां-बाप को ओल्ड एज होम में छोड़कर जाए. साथ ही उन्होंने दावा किया कि 'प्रणाम' जैसा कानून बनाने वाला असम देश का पहला राज्य है. उन्होंने निकट भविष्य में निजी क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों को भी इस कानून के दायरे में लाने की बात कही. वहीं कांग्रेस ने 'प्रणाम' का विरोध करते हुए कहा कि यह प्रदेश के समाज को नीचा दिखाने वाला कानून है. पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने कहा, 'यह बीजेपी का तरीका है, दुनिया को यह बताने के लिए कि असमिया क्रूर हैं और आम तौर पर अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करते हैं.'  

राजनीतिक अदावत ट्विटर से होते हुए अब मुकदमेबाजी तक पहुंच गई

(2 मिनट में पढ़ें )
कुछ दिन पहले तक तक छोटे भाई और बड़े भाई की जुगलबंदी थी. अटूट महागठबंधन था. लेकिन जैसे ही रिश्ते जुदा हुए नहीं कि दो-तरफा जुबानी जंग शुरू हो गई. चैनलों, अखबारों, प्रेस कांफ्रेंस, बाइट, ट्विटर, पोस्टर,... के बाद आखिरकार अब कानूनी जंग का आगाज हो ही गया. राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद को मीडिया का डार्लिंग बताने वाले सुशासन बाबू यानी सीएम नीतीश कुमार ने उन्हें बदजुबानी के आरोप में कानूनी नोटिस भेज दिया है. लालू के अलावा विपक्ष के नेता व उनके पुत्र तेजस्वी यादव को भी नोटिस भेजा गया है. हालांकि राजद नेता फिलहाल ऐसे किसी नोटिस के मिलने से इंकार कर रहे हैं. नोटिस में दोनों राजद नेताओं से भागलपुर रैली में सृजन घोटाले को लेकर नीतीश कुमार के खिलाफ व्यक्तिगत तौर पर अपशब्द कहने के लिए सार्वजनिक माफी मांगने के लिए कहा गया है. नोटिस नीतीश कुमार के लंबे समय से अधिवक्ता मित्र रहे उदय कांत मिश्रा द्वारा भेजा गया है. नोटिस में कहा गया है कि 15 दिनों के भीतर इसका का जवाब दें नहीं तो संबंधित कानूनी धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज करने की कार्रवाई की जाएगी. उधर जब से राह अलग हुई है, तब से लालू प्रसाद ने ट्विटर के जरिए नीतीश कुमार के खिलाफ जबरदस्त मोर्चा खोल रखा है. आपको जानकर ताज्जुब होगा कि ट्विटर पर लालू प्रसाद के 25 लाख फालोअर हो गये हैं. इस मामले में उन्होंने सुशासन बाबू के 17 लाख फालोअर से कहीं आगे निकल चुके हैं. 20 लाख फालोअर वाले क्लब में शामिल होने वाले लालू पहले बिहारी हैं. राजद सुप्रीमो के आधिकारिक आवास 10 सर्कुलर रोड पर आइटी की एक पूरी टीम काम करती है. इस टीम के अगुवा हरियाणा के संजय यादव हैं. हां, बगैर लालू के इजाजत व देखे बगैर कोई भी ट्वीट नहीं किया जाता.

'सच कहूँ ' कह रहा है.... कोई सुन ही नहीं रहा


इंजीनियर डे. सेलिब्रेशन से ज्यादा चिंतन!

(1.5 मिनट में पढ़ें )
यह खबर आपको सदमे में डाल सकती है.
भारत हर साल लगभग 30 लाख इजीनियर्स को तैयार करता है, जिसमें कंप्यूटर साइंस, इलेक्ट्रॉनिक्स, सिविल और मैकेनिकल इंजीनियरिंग आदी शामिल है. इन इंजीनियर्स को ही मानव जीवन में रचनात्मक बदलाव का श्रेय जाता है. ये सब हर साल आज का विशेष दिन उस शख्स के सम्मान में मनाते हैं जो भारत के सबसे अच्छे इंजीनियर्स में से एक थे. महान भारतीय इंजीनियर भारत रत्न सर एम विश्वेश्वरय्या के याद में भारत में हर साल 15 सितंबर को ‘इंजीनियर डे’ मनाया जाता है. इसी दिन सर एम. विश्वेश्वरय्या का जन्म हुआ था. विश्वेश्वरय्या के प्रयासों से ही कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर का निर्माण हो पाया. लेकिन मौजूदा दौर की यह खबर आपको सदमे में डाल सकती है. देश को बेहतरीन इजीनियर्स तैयार करने वाले इंजीनियरिंग संस्था आईआईटी व एनआईटी भारी शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है. राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) में 47 फीसदी फैकल्टी का पद रिक्त है. वहीँ सर्वोच्च इंजीनियरिंग संस्था आईआईटी में 37 फीसदी फैकल्टी की कमी है.  
वहीँ विभिन्न आईआईटी से वर्ष 2016 -17 के दौरान 889 छात्रों ने विभिन्न पाठ्यक्रमों में ड्राप आउट हुए. विभिन्न राज्यों में 23 आईआईटी कार्यरत हैं. 2020 तक आईआईटी में छात्रों की संख्या एक लाख करने की योजना है. देश भर में आईआईटी, एनआईटी, 3आईटी के अलावा लगभग 8547 प्राइवेट कॉलेज, 1557 सरकारी अनुदान प्राप्त कॉलेजों में लगभग 31 लाख छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं.

Thursday, September 14, 2017

'यह कष्ट देना का निकृष्टतम मुमकिन उपाय है'

23 साल तक डूप्लिकेट पासपोर्ट नहीं मिलने के कारण रहना पड़ा रिफ्यूजी बनकर.  
(2 मिनट में पढें)

अदालत नहीं होती तो शायद ही देश के दो नागरिकों के वतन वापस वापसी का सपना साकार हो पता. बगैर किसी कसूर के सिस्टम की लापरवाही नहीं अपराध के कारण दो भारतीयों को अपने मुल्क, लोगों, रिश्तेदारों, मित्रों ...  से 23 साल दूर रहना पड़ा. मणिपुर कीे पिंगमला 1994 में थाइलैंड गईं. वहां उनका पासपोर्ट बाजार में चोरी हो गया. तब से लेकर लाख गुजारिशों- आवेदनों के बावजूद उन्हें डुप्लीकेट पासपोर्ट बना कर नहीं दिया गया. पिंगमला के पति लूंइगम उन्हें अकेला नहीं छोड सकते थे, लिहाजा वह भी 23 साल के लंबे अंतराल तक निर्वासित जिंदगी गुजारने पर मजबूर रहे. इन सालों में एक बार इस दंपत्ति को प्रतिबंधित संगठन एनसीएन (आइ) (एम) का सदस्य बता कर डुप्लीकेट पासपोर्ट देने से मना कर दिया गया. 1995 में दंपत्ति ने दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. उन्हें नागा चरमपंथी के मददगार बताकर दस्तावेजों की समीक्षा करने का बहाना बना कर टालमटोल किया गया. इसके बाद 22 सिंतबर, 1995 को कोर्ट में संयुक्त् सचिव स्तर का एक अधिकारी कोर्ट में अंडरटेकिंग देते हुए वादा किया कि दंपत्ति को यात्रा अधिकार पत्र निर्गत कर दिया जायेगा. देश वापसी के बाद फिर से पासपोर्ट जारी किया जा सकेगा. लेकिन, यह अंडरटेकिंग कोर्ट में धूल फांकता रहा. बैंकॉक में वर्ष 1996 में दंपत्ति ने संयुकत राष्ट्र संघ उच्चायोग से संरक्षा प्रदान करने की गुहार लगाई. संघ ने उन्हें कनाडा भेजा और वहां की नागरिकता दिलवाई. इन सबके दौरान केंद्र पुरे प्रकरण पर सच्चाई को अदालत से छुपाता रहा. दंपत्ति ने एक बार फिर 2014 में दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. तब कहीं जा कर गत 23 अगस्त को उन्हें स्वदेश लाने के लिए विजा मुहैया कराने फैसला सुनाया गया. फैसले में हाइकोर्ट की कार्यकारी मुख्य न्यायाधिश की अगुवाई वाली बेंच ने कहा, यह मामला किसी के अधिकारों का अधिकतम हनन जैसा है. यह कष्ट देना का निकृष्टतम मुमकिन उपाय है. भारत के दो नागरिकों को लगभग 23 लंबे सालों तक देश से बहार निर्वासित रहना पड़ा. अपने जन्म स्थान, नजदीकी रिश्तेदारों व मित्रों से दूर विदेश में लगातार रहने पर मजबूर किया गया. दोनों को यूएन से बतौर रिफ्यूजी मदद की गुहार लगानी पडी. क्या इसका किसी भी तरीके से भरपाई किया जा सकता है?

अंधेरे में रोशनी की लीक

कश्मीर के मुस्तकबिल को नफरत की राह पर ले जाने की साजिश के बीच नौजवानों की ताजा तस्वीरें अंधेरे में रोशनी की लीक दिखाती है.

1. पुलिस सब इंस्पेक्टर की भर्ती में एक कश्मीरी युवती अपनी हाइट माप करवाती हुई. 
2. जे एंड के लाइट इन्फेंट्री रेजिमेंट के नए रंगरूट बने खान. खान के आदर्श हैं, उमर फ़याज़. 22 साल के फयाज कश्मीर के शोपियां इलाके के सुरसोना गांव के रहने वाले थे. वह बाटपुरा में अपने मामा की लड़की की शादी में शरीक होने गए थे. राजपुताना राइफल्स में बतौर लैफ्टिनेंट भर्ती होने के बाद ये फयाज की पहली छुट्टी थी. लेकिन रात को शादी से लौटते वक्त आतंकियों ने उन्हें अगवा किया. फयाज को गोलियों से छलनी करने के बाद उनके शव को चौक पर फेंक दिया गया था.      

Wednesday, September 13, 2017


नेताजी जरा सामान्य अभिभावक की तरह स्कूल जाकर तो देखिए...

(1 मिनट में पढ़ें )
राजनेता सामान्य अभिभावक की तरह स्कूल दर स्कूल जायें. आंकलन करें. महसूस करें. कि स्कूल बच्चों के लिए कितने सुरक्षित हैं? यह मांग बाल यौन शोषण के खिलाफ युद्ध का शंखनाद करने वाले नोबल विजेता कैलाश सत्यार्थी ने की है. 'सुरक्षित बचपन - सुरक्षित भारत' के नारे के साथ भारत यात्रा पर निकले सत्यार्थी ने स्कूलों की बदतर सुरक्षा व्यवस्था पर जोरदार हमला करते हुए कहा कि इसी कमी के कारण बलात्कार, बाल यौन शोषण व छेड़छाड़ की घटना बढ रही है. उन्होंने कहा, 'मैं देश के सभी राजनीतिक दलों से आग्रह करता हूं  कि वे सामान्य अभिभावक के तौर पर स्कूल जायें. खुद से देंखे. वहां का वातावरण महसूस करें. सवाल करें. स्कूलों को सिखने और बच्चों के स्वर्ग के तौर पर देखा जाता है. यह प्रताड़ना का स्थान नहीं बनना चाहिए. अगर अब हम नहीं जागे और कड़ा कदम नहीं उठाया, तो हमारे बच्चे प्रताड़ित होते रहेंगे. और ऐसे में भारत को बच्चों के लिए सुरक्षित बनानेे का सपना अधूरा रह जाएगा.'

शौक - मौज के लिए अपने दुधमुंहे को बेच डाला

(1 मिनट में पढ़ें )
एक तरफ प्रद्युमन के पिता अपने बेटे की हत्या के लिए इंसाफ की गुहार लगा रहे हैं. पूरे देश में माता पिता भयभीत हैं. इन सब के बीच ओडिशा के भद्रक जिले से हैरान कर देने वाली घटना सामने आई है. भूख के कारण अपने बच्चे को बेचने की कई खबर आपने पढ़ी होंगी. लेकिन शौक - मौज के लिए बच्चे को बेचना हैरान कर देने वाली घटना है. एक कसाई मां - बाप ने  अपने एक साल के दुधमुंहे बच्चे को बेच डाला. दरअसल, बीते कल की एक खबर है. ओडिशा के भद्रक जिले के अस्तल गांव से. एक पिता पांड्या मुखी और मां बर्षा मुखी ने महज 23,000 रुपये में अपने दुधमुंहे  बच्चे को बेच डाला. इससे इन दोनों ने दो हजार रुपये में मोबाइल, 1500 में चांदी का पाजेब और बची रकम, साड़ी, गहने और  दारु पर उड़ा दिए. दोनों के एक सात साली की बेटी और 10 का एक और बेटा भी है. पाजेब बेटी के लिए खरीदी थी. भद्रक पुलिस के अनसार, मुखी की आय का कोई स्थायी स्रोत नहीं है. वह स्वीपर का काम करता है. इस अपराध में बच्चे का मामा बलिया भी शामिल है. इसके अलावा एक और आंगनवाडी कार्यकर्त्ता की मिलीभगत की बात सामने आयी है. ये कैसा रिश्ता था,  जिसमें लालच था, अपराध था, पैसा था, अपेक्षा थी, लेकिन प्यार नहीं था. 

Tuesday, September 12, 2017

'समोसा मिसाइल'. कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ सेना की जवाबी कार्रवाई में अभिनव प्रयोग.

 (1.5 मिनट में पढें)
कश्मीर घाटी में आप कहीं भी चले जायें. एक आम नजारा दिखेगा. दिवारों पर स्प्रे पेंट से लिखे नारे. भारत सरकार के खिलाफ. सेना का मजाक. आतंकियों का महिमामंडन. आजकल हिज्बुल मुजाहिद्दीन आतंकी व अल कायदा का भारतीय प्रमुख माने जाने वाले जाकिर मुसा का नाम 'मुसा भाई' दिवार दर दिवार पेंट किया हुआ दिख रहा है. खसकर, बडगाम जिले में. राष्ट्रीय राइफल के एक युवा कंपनी कमांडर ने निर्णय लिया कि इसका जवाब उसी की भाषा में दिया जाए. स्प्रे के बदले स्प्रे. बिल्कुल नये अंदाज में. जिन दिवारों पर अंग्रेजी के बड़े अक्षरों में 'मुसा भाई' लिखा था. वहां उसमें कुछ बदलाव किया गया. दो नये अक्षरों (एस और ए ) को जोड़ कर और एक में बदलाव (यू को ओ ) कर. दिवारों पर अब 'मुसा भाई' की जगह 'समोसा भाई' पढा जाने लगा है. बडगाम के लोगों ने जब सुबह दिवारों पर 'समोसा भाई' लिखा देखा तो अपनी हंसी न रोक पाये. यह चर्चा का विषय बना हुआ है. एक सैन्य अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा, 'कोई भी दिवार छुटा नहीं पाया गया. जिसमें जाकिर मुसा का नाम स्प्रे पेंट नहीं किया गया हो. पहले, हमने सोचा कि जैसे हम अक्सर करते हैं कि इसे मिटा दिया जाये. लेकिन, बाद में हमें आइडिया आया कि क्यों न हम इसका जवाब अलग ढंग से दें. यह एक दिलचस्प प्रयोग रहा. इससे हमारे जवानों का मनोबल भी बढा. आप निकट भविष्य में ऐसे कई और अभिनव प्रयोग कश्मीर घाटी में दखेंगे.'
संदर्भ साभार - DNA

रोजाना सुबह होने वाली रक्षा मंत्री और तीनों सेना प्रमुखों के साथ बैठक का सिलसिला आज से शुरू.


Monday, September 11, 2017

प्रसून जोशी की बाल शोषण पर दिल-व्याकुल करने वाली कविता

जब बचपन तुम्हारी गोद में आने से कतराने लगे,
जब माँ की कोख से झाँकती ज़िन्दगी,
बाहर आने से घबराने लगे,
समझो कुछ ग़लत है ।
जब तलवारें फूलों पर ज़ोर आज़माने लगें,
जब मासूम आँखों में ख़ौफ़ नज़र आने लगे,
समझो कुछ ग़लत है
जब ओस की बूँदों को हथेलियों पे नहीं,
हथियारों की नोंक पर थमना हो,
जब नन्हें-नन्हें तलुवों को आग से गुज़रना हो,
समझो कुछ ग़लत है
जब किलकारियाँ सहम जायें
जब तोतली बोलियाँ ख़ामोश हो जाएँ
समझो कुछ ग़लत है
कुछ नहीं बहुत कुछ ग़लत है
क्योंकि ज़ोर से बारिश होनी चाहिये थी
पूरी दुनिया में
हर जगह टपकने चाहिये थे आँसू
रोना चाहिये था ऊपरवाले को
आसमान से
फूट-फूट कर
शर्म से झुकनी चाहिये थीं इंसानी सभ्यता की गर्दनें
शोक नहीं सोच का वक़्त है
मातम नहीं सवालों का वक़्त है ।
अगर इसके बाद भी सर उठा कर खड़ा हो सकता है इंसान
तो समझो कुछ ग़लत है l
#PrasoonJoshi | #ChildSafety

'बीहड़ में तो बागी रहते हैं. डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं'

साल भर में दागी जनप्रतिनिधियों के मामले निपटाने का दावा करने वाली सरकार सूचना साझा तक करने में आनाकानी कर रही है.
(3 मिनट में पढ़ें )
'बीहड़ में तो बागी रहते हैं. डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं.' याद कीजिए फिल्म पान सिंह तोमर के इस डायलॉग पर खूब तालियां बजी थी. उसी दौर में सड़क पर संसद के साख को लेकर भी सवाल उठे थे. जनलोकपाल आंदोलन. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पहले ही भाषण में यह सवाल छेडा था कि फास्ट ट्रैक अदालतों के जरिए साल भर में दागी सांसदों के मामले निपटाये जाये. मौजूदा लोकसभ में 186 सांसद दागदार हैं. वहीं दागी विधायकों के आंकडे हैरान कर देने वाले हैं. लगभग 30 फीसदी विधायकों के खिलाफ विभिन्न अदालतों में मामले चल रहे हैं. यह पूरा मामला खासा गंभीर है कि दागी सांसदों या विधायकों की संपत्ति में सबसे ज्यादा इजाफा उनके सांसद या विधायक बनने के बाद होता है. एडीआर की सूचना के मुताबिक 2014 में फिर से जीते 320 सांसदों की संपत्ति में 100 फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया. इनमें 26 सांसद ऐसे हैं जिनकी संपत्ति 500 फीसदी, 4 की 1000 फीसदी और 2 की 2000 फीसदी बढी. प्रथम दृष्टि में यह आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने का मामला लगता है. इसी मसले को लेकर एनजीओ लोक प्रहरी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. ऐसे नेताओं की संपत्ति जांच की मांग के साथ ही एनजीओ ने कोर्ट से अपील की है कि चुनाव के दौरान ऐफिडेविट में 'आय का स्रोत'  का कॉलम जोड़ा जाए. मामले पर सुनवाई के दौरान पिछले दिन कोर्ट ने पूछा था, ऐसा लगता है जैसे केंद्र इस मामले में सूचना बांटने में कुछ अनिच्छुक दिख रहा है. केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) हलफनामे में सूचना अधूरी है. क्या यह भारत सरकार का रुख है?' कोर्ट ने पूछा, 'आपने अब तक क्या किया है? सरकार कह रही है कि वह कुछ सुधार के खिलाफ नहीं है. वहीं आज की सुनवाई के दौरान सीबीडीटी ने कोर्ट को बताया कि लोकसभा के 7 सांसदों और राज्यों के करीब 98 विधायकों की जांच की जा रही है. इन सांसदों और विधायकों की संपत्ति में 'काफी बढ़ोतरी' हुई है. मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में इन लोकसभा सांसदों और विधायकों के नाम को एक सीलबंद लिफाफे में पेश करेगी. 

आरके सिंह बनाम रूडी!

(2.5 मिनट में पढ़ें )
EDITED BY : हरि शंकर व्यास 
बेचारे राजीव प्रताप रूडी। रूडी ही थे आरके सिंह को भाजपा में लाने वाले। आरके सिंह रिटायर होने के बाद सेकुलर कांग्रेस, लालू के यहां भाव मिलने की उम्मीद में थे। उनकी सियासी महत्वकांक्षा थी। पर भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह के राजपूत होने से उनको भाजपा में एंट्री मिली। ध्यान रहे बिहार के राधामोहनसिंह प्रदेश में राजपूत राजनीति करते रहे है। आरा संसदीय क्षेत्र राजपूत बहुल है। पर जमीनी आधार वाला वहां भाजपा राजपूत नेता नहीं था। सो खोज हुई। एक नाम आनंदमोहन सिंह का आया। जेल में बंद दंबग आनंदमोहन की पत्नी ने भाजपा नेताओं से बात की। लवली आनंद खुद राजनीति में हैं। धर्मेंद्र प्रधान, राजनाथ सिंह आदि से बात हुई। तभी राजीवप्रताप रूडी को लगा कि बिहार के राजपूत का मामला है तो वे ही इस बारे में राजनाथ सिंह से बात करेंगे। तभी उनके एक चंपू ने उन्हे बताया कि मैं आपकी आरके सिंह से मुलाकात कराता हूं। आनंदमोहन तो जमीनी नेता है। उसके परिवार की पार्टी में एंट्री हुई तो आगे आपकी राजनीति को खतरा होगा। रिटायर अफसर को टिकट दिलाएगें तो वह आपका वफादार रहेगा। सो राजीवप्रताप रूडी ने राजनाथसिंह के यहां आरके सिंह की हवा बनाई और टिकट दिलवा दिया। वे भगवा हो गए।
हवा में आरके सिंह जीत गए। नेता बन गए। पर लालू के सियासी जलवे में पारंगत हुए आरके सिंह की महत्वकांक्षा बढ़ी। विधानसभा चुनाव के वक्त अपने क्षेत्र में अपने चंपूओं के टिकट चाहे। वह नहीं हुआ तो बोल दिया कि टिकट बिक रहे है और मोदी- अमित शाह पर निशाना। फिर अपने को शत्रुध्न सिन्हा के साथ गोलबंद किया। हिसाब से मोदी-शाह के यहां रूडी का ग्राफ था। पर रूडी कुछ राजसी संस्कार लिए हुए हैं। सो जाने-अनजाने राजीव प्रताप रूडी ने ऐसे तेवर दिखाए कि मोदी-शाह के आगे अपने को नाकाबिल बनाया।
रूडी को हटाने का फैसला हुआ। राजपूत की जगह राजपूत ही लाना चाहिए और इस सोच में आरके सिंह मंत्री बने। कुछ जानकारों के अनुसार आरके सिंह को एकदम सीधे पॉवर जैसा बड़ा मंत्रालय स्वतंत्र प्रभार के साथ देना संभव है किसी औद्योगिक घराने की लॉबिंग से हुआ हो।
जो हो, पते की बात यह है कि रूडी बहुत होशियार बने थे। निराकार अफसर की वफादारी में आरके सिंह का टिकट करवाया। यह कल्पना नहीं की, सोचा नहीं कि मोदी –शाह को नेता नहीं अफसर चाहिए।
courtesy- www.nayaindia.com

Sunday, September 10, 2017

रुक जाना नहीं तू कहीं हार के...

(3.5 मिनट में पढ़ें )
प्रेरक व्यक्तित्व - 'मालविका अय्यर'
'दुर्घटना से पहले मेरा एक खुशहाल बचपन था. मैं खेल और क्लासिकल डांस में बहुत अच्छी थी. तभी बम बलास्ट की दुर्घटना घटी. इस दुर्घटना में मैंने अपने दोनों हाथ गंवा दिए. मेरे दोनों पैरों को भी गंभीर चोटे आईं. कई फ्रैक्चर. नर्व पैरालाइसिस. दो सालों तक बिस्तर पर. इन सब के बीच कई सर्जरी से गुजरी. असहनीय दर्द. लोगों का मुझ पर तरस दिखाना. चीजों को और बदतर बना रही थी. चोट के आगे परास्त होना नियती थी. मेरे लिए इसके आगे असहाय पड़े रहना एक विकल्प था. एक ऐसा विकल्प, जिसे मैं स्वीकार करना नहीं चाहती थी. धीरे-धीरे ठीक हो गई और दोबारा स्कूल जाना शुरू हुआ. शुरुआत में दूसरों के जैसा ही खुद को जताने की कोशिश की. जैसे की कुछ हुआ ही न हो. लेकिन, दुर्घटना के कारण लगी भावनात्मक आघात को स्वीकार करते हुए एक नये संभावनाओं के साथ नयी जीवन की शुरुआत की. मैं इस विचारों से घिरी बड़ी हुई थी कि लड़कियों को सुंदर होना चाहिए और शादी करनी चाहिए. जब से मैं दिव्यांग हुई, तो लोगों को लगा कि मेरी कहानी खत्म हो गई. लेकिन कोई क्या कहता है के इतर मेरी मां मेरे साथ खड़ी रही और मुझे महसूस कराया कि मैं दिव्यांग्ता के कारण औरों से अलग नहीं हूं. उसकी मदद से मेरा आत्मविश्वास व जूनून बढता गया. आपको जीवन में सफलता के लिए संपूर्ण शरीर की जरुरत नहीं है. एक मोटिवेशनल स्पीकर के तौर पर मेरी सबसे बड़ी उपलब्धि है कि मैंने दुनिया भर में विभिन्न प्लेटफाॅर्मों के जरिए लोगों के जीवन में बदलाव लाया है. मैंने लोगों को सकारात्मक तरीके से लोगों को प्रभावित किया है. लोग अक्सर मुझे बताने के लिए वापस आते हैं कि उन्होंने जिंदगी से शिकायत करना छोड आशा के साथ जिंदगी जीना शुरू कर दिया है. मैं महसूस करती हूं कि मुझे जिंदगी में दूसरा मौका मिला है और मैं इस उपहार को लोगों को समझाने में कि 'जिंदगी में कभी हार नहीं माननी चाहिए' इस्तेमाल करते रहना चाहती हूँ. जीवन अनिश्चित है और हमें सदा इसके द्वारा लाये जाने वाली चुनौती का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए.'-----------------------------
28 मालविका अय्यर का जन्म तमिलनाडू के कुंबकोणम में हुआ था. महज 13 वर्ष की आयु में 26 मई, 2002 को बिकानेर में एक ग्रेनेड विस्फोट में दोनों हाथ खो दी. दरअसल, इसी साल के आरंभ में उनके आवास के नजदीक एक आयुध फैक्ट्री में आग लग गई थी. इसके बाद ग्रेनेड यहां-वहां बिखर पडे थे. इसी के चपेट में मालविका आ गईं. मौजूदा समय में वह बतौर दिव्यांग अधिकार कार्यकर्ता, मोटिवेशनल स्पीकर, फैशन मॉडल कार्य कर रही हैं. उन्होंने सामाजिक कार्य में पीएचडी किया है. संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा हाल ही में आयोजित यूथ फाॅरम में वह बतौर प्रेरक वक्ता के तौर पर देखी-सुनी गईं.

सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा

थल सेना अध्यक्ष जनरल बिपिन रावत 1965 युद्ध में असाधारण वीरता दिखाने वाले सर्वोच्च सेना सम्मान परम वीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद की विधवा रसूल बीबी को पहले सैल्यूट किया फिर पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लिया. दरअसल, जब बिपिन रावत थल सेना अध्यक्ष बने थे तब रसूल बीबी उनसे दिल्ली में मुलाकात कर गाजीपुर आने की गुजारिश की थी. हर वर्ष अब्दुल हमीद की शहीदी 10 सितंबर के दिन श्रद्धांजलि सभा आयोजित की जाती है.

श्री श्री के सारथी बने हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस

पिछले दिनों आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर गुवाहाटी के दौरे पर थे. उन्हें साथ में एयरपोर्ट से गंतव्य तक ले जाने के लिए गुवाहाटी हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस अजीत सिंह ने खुद गाड़ी ड्राइव की. इस पर कोई टिप्पणी नहीं. वैसे,  हाई कोर्ट बार एसोसिएशन के कुछ सदस्यों का मानना है कि यह नियमों व नैतिकता की अवहेलना है. इस मुद्दे को शीर्ष अदालत के चीफ जस्टिस के समक्ष उठाये जाने की भी बात हो रही है. वहीं विडीयो में श्री श्री और चीफ जस्टिस दोनों सीट बेल्ट बांधे बगैर सवारी करते नजर आ रहे हैं. इस पर तो टिप्पणी जरुरी है. आप भी चाहें तो विडीयो देख सकते हैं.... 
 

कायरता छोड़िए. बाल यौन शोषण के खिलाफ युद्ध में शामिल होइए...

(3 मिनट में पढ़ें )
'सुरक्षित बचपन - सुरक्षित भारत' भारत यात्रा में अपना योगदान दें  (https://bharatyatra.online)
कैलाश सत्यार्थी, नोबेल शांति पुरस्कार विजेता  
मैं बाल यौन शोषण और तस्करी के खिलाफ युद्ध का ऐलान करता हूं. मैं कल से भारत यात्रा कर रहा हूं, जो कि बच्चों के लिए भारत को फिर से सुरक्षित बनाने के लिए इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन होगा. मैं यह स्वीकार नहीं कर सकता कि हमारे बच्चों की बेगुनाही, मुस्क़राहट और आजादी छिनती रहे, उनका बलात्कार, यौन शोषण किया जा सके. यह साधारण अपराध नहीं है. यह एक नैतिक महामारी है जो हमारे देश को सता रही है. हमें आजादी कभी सुसज्जित गिफ्ट पैकेट में लिपटे उपहार के तौर पर नहीं मिलती. भय से आजादी एक संघर्ष है जो साहस और सहानुभूति के अनवरत जुस्तजू में निहित है. हम वैसे दौर में रह रहे हैं, जहां हम लगातार विभिन्न मुद्दों पर होनेवाली बहस में शामिल है. लेकिन मैंने देखा है कि जब हमारे सबसे बेशकीमती धन 'बच्चों' की बात आती है, तो कैसे हमारा मौन सामूहित षड्यंत्र उभर कर सामने आ जाता है. पिछले कुछ महिनों से मैं राक्षसों के यौन क्रुरता के शिकार हुए दर्जनों मासूम निर्दोष बच्चों से मिला. उनके दुख दर्द न सिर्फ हमारे समाज के लिए कलंक है, बल्कि यह मुझे महसूस कराता है कि बाल अधिकारों के लिए जीवन भर किया गया प्रयास आजीवन अधूरा संघर्ष बन कर रह गया. इसलिए मैंने फिर से एक यात्रा का निर्णय लिया. इस मुद्दे पर चुप्पी अब स्वीकार्य नहीं है. यह कायरता होगी. मैं इसको स्वीकार नहीं करूंगा कि शिकारी निडर खुलेआम घुमें और पीड़ित भय में रहने को मजबूर. बाल यौन शोषण को रोकना होगा. दुखद और कठोर वास्तविकता यह है कि बच्चों के यौन शोषण देश में नैतिक महामारी बन रहा है. पीड़ित मलिन बस्तियों से समृद्ध या किसी भी तबके से सामनेे आ सकते हैं. शिकारी ड्राइवर, शिक्षक, पडोसी या कोई नजदिकी रिश्तेदार हो सकता है. यह भयावह भय पूरे देश के अभिभावकों कों ग्रसित कर लिया है. इस भय से मुक्ति मिलनी चाहिए. देश में हर एक सेंकेड में बच्चों के खिलाफ कोई न कोई अपराध होते हैं, लेकिन सामाजिक बदनामी के डर से इनमें से ज्यादातर मामलों की शिकायत पुलिस में नहीं की जाती. मैं यात्रा पर इसलिए भी निकल रहा हूं कि अभिभावक जोरदार आवाज उठायें चाहे उनके रिश्तेदार ही शिकारी क्यों न हों. मैंने वर्ष 1993 में बिहार से दिल्ली तक बाल मजदूरी के खिलाफ यात्रा निकाली. अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन ने इसे गैर कानूनी घोषित किया. छोटी आवाजों का भी शक्तिशाली प्रभाव हो सकता है. अगर हम और आप अपनी बच्चों की सुरक्षा के लिए आवाज नहीं उठाएंगे तो कौन उठायेगा? कश्मीर से कन्याकुमारी यात्रा बाल अपराधों के खिलाफ लोगों को जागरुक बनाते हुए ऐसे मामलों में खुलकर आवाज उठाने के लिए प्रेरित करेगी. 

Saturday, September 9, 2017

शतकों के शहंशाह ने आज ही के दिन लगाया था पहला शतक

आज ही के दिन के दिन 1994 में सचिन तेंदुलकर ने 78 मैचों के इंतजार के बाद पहला एकदिवसीय अंतरराष्ट्रीय शतक बनाया था. कोलंबो के प्रेमदासा स्टेडियम में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ.  सचिन ने 130 गेंदों पर 8 चौके और दो छक्के लगाकर 110 रनों की पारी खेली थी . ...विडीयो (1. 28 मिनट ) 

सलाम करने की आरजू हैं ...इधर जो देखो सलाम कर ले

(1.5  मिनट में पढ़ें )
वैसे तो आज चेन्नै स्थित ऑफिसर ट्रेनिंग एकेडमी में ट्रेनिंग पूरा करने के बाद कई कैडेट सेना में ऑफिसर बने. लेकिन एसएसडब्लू (नॉन टेक ) के तहत 11 महीने की ट्रेनिंग के बाद आर्मी लेफ्टिनेंट बनी दो महिलाओं की बात ही अलग है. सबसे पहले उनके जज्बे को सलाम. किसी अपने को खोने के गम से उबरने में लोगों को सालों लग जाते हैं. जिंदगी दुश्वार लगने लगती है, जीने का कोई मकसद नजर नहीं आता. यह तो हुई आम लोगों की बात, लेकिन एक  नहीं दो महिलाओं ने अपने-अपने पति की मौत के बाद कुछ ऐसा किया है कि लोग उन्हें सलाम कर रहे हैं. इन दोनों में से एक 17 नवंबर, 2015 को कश्मीर के कुपवाड़ा में आतंकवादियों से लड़ते हुए शहीद हुए शौर्य चक्र व सेना मेडल से सम्मानित कर्नल संतोष महादिक की पत्नी स्वाति महादिक लेफ्टिनेंट बन गई हैं. वहीं हिर्दय गति रुक जाने की वजह से माहर रेजिमेंट के नायक मुकेश कुमार दुबे की पत्नी निधि मिश्रा दुबे भी आज लेफिनेंट हों गईं. एसएसडब्लू एग्जाम के समय स्वाति की उम्र 37 साल थी. सेना ने उन्हें विशेष अनुमति देते हुए उम्र में छूट प्रदान की है. वहीं निधि की आयु 29 साल थी. सैनिक विधवाओं की भर्ती के नियम में चार साल की छूट है. पति  के मौत के वक़्त  निधि 4 महीने की गर्भवती थी. उसके ससुराल वालों ने भी उसे निकल दिया था. ऐसे में तमाम दुश्वारियों को झेलते हुए सेना में भर्ती होना और ट्रेनिंग पूरा करना बेहद कठिन था. स्वाति दो बच्चों की मां है. स्वाति के अनुसार, उनके पति संतोष महादिक का पहला प्यार इंडियन आर्मी थी और उनका पहला प्यार संतोष थे. ऐसे में संतोष के प्यार और सपनों को जिंदा रखने और आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने आर्मी में जाने का फैसला किया. गांव में पली - बढ़ी स्वाति पेड़ पर चढ़ने, खो - खो , योगा आदि में निपुण थीं लिहाजा प्रशिक्षण में ज्यादा परेशानी नहीं हुई.   निधि चार बार असफल होने के बावजूद हिम्मत नहीं हारीं और पांचवी कोशिश में एसएसडब्लू पास की.  

Friday, September 8, 2017

अपने देश में शरणार्थी...

अपने देश में शरणार्थी.......
मेमरी गली (2 मिनट में पढ़ें )
9 September 2015 ·
फोटो खूब दिखा रहलैइ ह. हां....हां हमु देखलिएइ ह. लेकिन, समझ में न अइलइ कि की बात हई. अकील भाई तू त खूब अखबार पढह अ टीवी पर खाली न्यूजए. त तू ही बातबअ. अकील भाई-सीरिया एगो देश हइ. उहां न आतंकवादी आइएसआइएस वाला सब भारी तबाही मार-काट मचैले हइ. अइसन में सब लोग अपन-अपन घर दुआर छोड़ छारके दूसर देश भाग रहले ह. दूसर दूसर देश में जाइला समुंदर पार करे परे हइ. इही में कोई नाव डूब गेलइ त राम नाम सत, अल्हा के प्यारे. एैसे ही एगो बच्चा... का नाम, रुक अखबार देखे दे, हां....तीन साल के एलन कुर्दी. बह के किनारे लग गइलै. ओकरे एगो पुलिसवाला के गोदी लेले फोटो हइ. लाखो लोग कैसहुं कैसहुं दूसर दूसर देश में भाग रहलइ ह. दूसर देश सब कहे हइ कि हम दस लाख लोग को रखेंगे तो कोई पांच लाख. बड़ा मन दुखित हो गेलइ. अहो अकील भाई हमु सब त शरणार्थीये न हियइ. अपन राज्य से बाहर हिंया प्रदेश में. दूर बूरबक. फालतू बात न कर. ऐह अकील भाई मान ले लिय कि ज्यादा नइ पढलिएै. लेकिन एगो बात बताबअ. घर से हिंया काहे अलिअइ. जब घर से हिंया आबे ला ट्रेन में चहरलिएै त रास्ता में टीटिया अ पुलिसबा साला पैसा काहे लेलकई. इ नाव जैसन बात नई होलइ. कोचम कोच ट्रेन के डब्बा कइसहूं दम साध के अइलिअइ. बाप रे बाप मरते मरते कैसहुं. बात करइछ. हिंया रहेला एगो कमरा दसगो लोग. रोज सुबह में मंडावली चैक पर खड़ हो जा. कोई आबे त दू न तीन सौ रुपयइा पर दिहारी ला लैजइतइ. कोई लंपटबा मिल गेलअउ त बिहारी कह के गलिया भी दे हइ. एक बार परसूए त सरोजबा के तीन चार थोपी मारबो कैलइ. माइ बाप, कनिया बच्चा सब के छोड़ के. कोई मरियो जेतई, त पंहुचबहो. अकील भाई- कुछ बात त तोहर सहीये हउ. कुछ नै सब सही. दूसर दूसर देश में पहुंचे वाला कि गती होबेत होतई. जैसे हमसब बंबई जा हियइ त औसने ना.....हां हुउां कि बोलअ तू आइएस....हां आइएसआइएस अतंकवदिया सब. अब अपन बिहार में कौन आइएसआइएस हई, जे हम सब इ गती में हियइ. ...............
यह संवाद दिल्ली के मंडावली इलाके के एक चौक पर सुबह खड़े रहने वाले कुछ बिहारी प्रवासी मजदूरों के बीच की है. अब कोई बताए इन्हें कि उनके ऐसे हालात के लिए राज्य के आइएसआइएस कौन हैं...किसी को तो जिम्मेवारी लेनी होगी.

मंत्रीजी, होम क्वरंटाइन में घुमे जा रहे हैं

 बतौर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री कोरोनाकाल में अश्वनी चैबे की जिम्मेवारियां काफी बढ जानी चाहिए। क्योंकि आम लोग उनकी हरेक गतिविधियों खासक...