Saturday, September 2, 2017

क्या देश अपने बच्चों को मरने से रोक सकता है?

मोदीजी ब्रिक्स देशों के स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में भी पूछिएगा
(2 मिनट रीड )
सीमा सिंह 
'बच्चे मरे या जिये. उनकी बला से'. ब्रेकिंग न्यूज. सरकारी रटी-रटायी प्रतिक्रिया. जनता में आक्रोश. मातम
पूरसी. फिर वही ढाक के तीन पात. जी. ऐसा ही है. अगर ऐसा नहीं है तो देश में हरेक मिनट पांच साल से छोटे दो बच्चों की मौत कैसे हो जाती है. शिशु मृत्यु दर के बारे में हम बचपन से ही सुनते - पढ़ते आ रहे हैं. सभी इसे नियति मान कर बैठे हैं. कई किलोमीटर तक एक पति अपनी पत्नी  के शव को कंधे पर ले जाने के लिए मजबूर होता है. एम्बुलेंस नहीं मिलता. नवजात को अस्पताल में चूहा कूतर जाता है. बीमारी थोड़ी गंभीर हुई नहीं कि गांव व छोटे शहरों से महानगर जाने की मजबूरी. मरने के लिए मजबूर लोग. स्वास्थ्य कभी किसी चुनाव का मुद्दा बना क्या? स्वास्थ्य सेवा भी मुद्दा हो सकता है या नहीं? आसान है जवाब देना, यह अमेरिका नहीं है बाबू. इस पर बहस भी कब होते हैं, जब झुंड में लोग मरते हैं. जीना - मरना सब उपर वाले के हाथ में है! पीएम मोदी ब्रिक्स सम्मेलन में भाग लेने चीन जा रहे हैं. ब्रिक्स में शामिल अन्य सदस्य देश हैं ब्राजील, रुस, चीन और दक्षिण अफ्रिका. इनके स्वास्थय सेवा के आगे हम कहीं ठहरते हैं, क्या? देश में जीडीपी का महज 1.3 फीसदी स्वास्थय क्षेत्र में आवंटन. जबकि वैश्विक औसत 6 फीसदी के करीब है. आज भी 150 देशों से खराब है हमारा शिशु मृत्यु दर. पड़ोसी नेपाल और बांग्लादेश से भी खराब. चीन में शिशु मृत्यु दर 9.4 फीसदी है और हमारा 38.4. सरकारों की धूर्तता देखिए, जानबूझकर 10 सालों में एक बार स्वास्थय आंकडे प्रकाशित किये जाते हैं. बीआरडी हादसे वाले राज्य का नमूना देखिए सूबे में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष लगभग 500 रुपये मात्र आवंटिट होते हैं. विगत 15 सालों में सूबे की आबादी लगभग 15 फीसदी बढ़ गई. लेकिन ग्रामीण स्वास्थय केंद्र आबादी के लिहाज से 8 फीसदी कम हो गये. देश के ही दक्षिणी राज्य केरल, तमिलनाडू, आंध्र प्रदेश, तेलांगना, कर्नाटक व गोवा की सरकारों को धन्यवाद. इन राज्यों में स्वास्थय सेवा पर अच्छा निवेश हुआ, नतीजा हमारे सामने है. बीआरडी हादसे जैसी घटना की खबरें एसे राज्यों से नहीं आतीं. नोबल विजेता कैलाश सत्यार्थी ने बीआरडी हादसे पर कहा है, 'यह घटना नहीं बल्कि नरसंहार है.' नेताओं की प्रतिक्रियाओं के बारे में बात करना दिवार से अपना सर टकराने जैसा है. अंत में एक सवाल, क्या देश अपने बच्चों को मरने से रोक सकता है.
संदर्भ साभार- www.nytimes.com

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