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सही मायने में देश के विश्वविद्यालयों के अहातों में कौन संघर्षरत हैं? छात्र या राजनीतिक दल जो छात्रों के जरिए अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं? भाजपा, कांग्रेस व सीपीआइ (एम) की छात्र इकाई क्रमशः एबीवीपी, एनएसयूआइ व एसएफआई? छात्रों को अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने की पूरी आजादी मिलनी चाहिए. लेकिन, क्या सड़ चुकी राजनीति को शैक्षणिक संस्थानों में सड़ांध फैलाने की इजाजत मिलनी चाहिए? छात्र आजाद पक्षी हैं और उन्हें अपने हक व अपनी राह चुनने की आजादी बगैर किसी बाहरी प्रभाव मिलनी चाहिए. बगैर कुछ लिखे काली स्लेट की तरह, जिस पर उन्हें खुद लिखने की छूट मिले. लेकिन, जैसे ही कोई छात्र किसी राजनीतिक इकाई से जुड जाते हैं, वैसे ही उनके विचारों का अपहरण हो जाता है. और आपकी पहचान एक खास प्रतिक या चिह्न से जुड़ जाती है. जो विचारधारा और व्यवहार को दिशा देने लगते हैं. विकासशील माइंड की धार को कुंद करने जैसा है. कैंपस में कई छात्र राजनीति से दूर रहना चाहते हैं. यह उनके अधिकार क्षेत्र में भी है. लेकिन, मौजूदा माहौल उनके चाहने और ना चाहने से कोई वास्ता नहीं रखता. उन्हें राजनीति के चूल्हे में ईंधन की तरह जलना ही पड़ता है. कैंपस की राजनीति उन्हें प्रभावित करती है. जो छात्र केवल पढाई से वास्ता रखना चाहते हैं, उनके करियर को अल्पसंख्यक राजनीतिज्ञ छात्रों द्वारा अपहरण किया जा रहा है. कैंपस राजनीति से राजनीति के क्षेत्र में बामुश्किल एक फीसदी छात्र सफलता का परचम लहरा पाते हैं. ऐसे में 99 फीसदी छात्रों का क्या? 70 का का दौर अलग था. लेकिन, अब वक्ता काफी बदल चुका है. विदेशी यूनिवर्सिटी कैंपस में अगर आप हिंसा में शामिल पाये जाते हैं, तो आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, लेकिन अपने देश में ऐसा नहीं है. अगर आप हिंसा में लिप्त पाये जाते हैं, तो आपके राजनीतिक आका आपके बचाव में आगे आ जाते हैं. यह लाइसेंस प्रदान करने जैसा ही है. फिलहाल विभिन्न यूनिवर्सिटी कैंपस से हिंसा-आगजनी, हत्या-आत्महत्या, अशिष्टता के मामले ज्यादा सामने आ रहे हैं. यह सही नहीं है. महाविद्यालय व विश्वविद्यालय बहस के लिए उपयुक्त स्थल हैं. जहां पुराने-नये विचारों के आधार पर बहस जायज है. लेकिन जैसे ही राजनीति की इसमें घुसपैठ हो जाती है, बहस तू तू मै मै से ज्यादा कुछ बच नहीं जाता. क्या मौजूदा दौर में कैंपस में छात्र इकाईयों के बीच बहस होता देखा या सुना गया है? इससे कुछ भी हांसिल नहीं होने वाला. कैंपस के अभिभावक यानी वीसी से लेकर निर्णय लेने वाले तमाम अधिकारी व शिक्षकगण भी राजनीतिक संलिप्तता या दबाव की वजह से उचित निर्णय लेने से बचते हैं. इन सब का असर पढाई पर दिख रहा है. बेशकीमती समय हड़ताल, राजनीतिक बहस व टकराव के भेंट चढ़ जा रहे हैं. समय आ गया है, निर्णय लेने का....
सही मायने में देश के विश्वविद्यालयों के अहातों में कौन संघर्षरत हैं? छात्र या राजनीतिक दल जो छात्रों के जरिए अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं? भाजपा, कांग्रेस व सीपीआइ (एम) की छात्र इकाई क्रमशः एबीवीपी, एनएसयूआइ व एसएफआई? छात्रों को अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने की पूरी आजादी मिलनी चाहिए. लेकिन, क्या सड़ चुकी राजनीति को शैक्षणिक संस्थानों में सड़ांध फैलाने की इजाजत मिलनी चाहिए? छात्र आजाद पक्षी हैं और उन्हें अपने हक व अपनी राह चुनने की आजादी बगैर किसी बाहरी प्रभाव मिलनी चाहिए. बगैर कुछ लिखे काली स्लेट की तरह, जिस पर उन्हें खुद लिखने की छूट मिले. लेकिन, जैसे ही कोई छात्र किसी राजनीतिक इकाई से जुड जाते हैं, वैसे ही उनके विचारों का अपहरण हो जाता है. और आपकी पहचान एक खास प्रतिक या चिह्न से जुड़ जाती है. जो विचारधारा और व्यवहार को दिशा देने लगते हैं. विकासशील माइंड की धार को कुंद करने जैसा है. कैंपस में कई छात्र राजनीति से दूर रहना चाहते हैं. यह उनके अधिकार क्षेत्र में भी है. लेकिन, मौजूदा माहौल उनके चाहने और ना चाहने से कोई वास्ता नहीं रखता. उन्हें राजनीति के चूल्हे में ईंधन की तरह जलना ही पड़ता है. कैंपस की राजनीति उन्हें प्रभावित करती है. जो छात्र केवल पढाई से वास्ता रखना चाहते हैं, उनके करियर को अल्पसंख्यक राजनीतिज्ञ छात्रों द्वारा अपहरण किया जा रहा है. कैंपस राजनीति से राजनीति के क्षेत्र में बामुश्किल एक फीसदी छात्र सफलता का परचम लहरा पाते हैं. ऐसे में 99 फीसदी छात्रों का क्या? 70 का का दौर अलग था. लेकिन, अब वक्ता काफी बदल चुका है. विदेशी यूनिवर्सिटी कैंपस में अगर आप हिंसा में शामिल पाये जाते हैं, तो आपको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है, लेकिन अपने देश में ऐसा नहीं है. अगर आप हिंसा में लिप्त पाये जाते हैं, तो आपके राजनीतिक आका आपके बचाव में आगे आ जाते हैं. यह लाइसेंस प्रदान करने जैसा ही है. फिलहाल विभिन्न यूनिवर्सिटी कैंपस से हिंसा-आगजनी, हत्या-आत्महत्या, अशिष्टता के मामले ज्यादा सामने आ रहे हैं. यह सही नहीं है. महाविद्यालय व विश्वविद्यालय बहस के लिए उपयुक्त स्थल हैं. जहां पुराने-नये विचारों के आधार पर बहस जायज है. लेकिन जैसे ही राजनीति की इसमें घुसपैठ हो जाती है, बहस तू तू मै मै से ज्यादा कुछ बच नहीं जाता. क्या मौजूदा दौर में कैंपस में छात्र इकाईयों के बीच बहस होता देखा या सुना गया है? इससे कुछ भी हांसिल नहीं होने वाला. कैंपस के अभिभावक यानी वीसी से लेकर निर्णय लेने वाले तमाम अधिकारी व शिक्षकगण भी राजनीतिक संलिप्तता या दबाव की वजह से उचित निर्णय लेने से बचते हैं. इन सब का असर पढाई पर दिख रहा है. बेशकीमती समय हड़ताल, राजनीतिक बहस व टकराव के भेंट चढ़ जा रहे हैं. समय आ गया है, निर्णय लेने का....
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