प्रीति सिंह
(3 मिनट में पढ़ें)
फिल्म 'नदिया के पार' के आखिरी लम्हे, कमरे में गूंजा और चंदन. भींगी पलकों के साथ दोनों के बीच संवाद. तभी ओंकार कमरे में दाखिल होते हैं और कहते हैं, अरे पागल ये कैसी बातें कर रहे थे तुमलोग, तुमलोग अपनी खुशियां छोड़ दोगे और हम खुश हो जाएंगे. हाँ. गूंजा तुम चिंता न करो यह देवता ही तुम्हारा पतिदेवता बनेगा... और इसके साथ ही एक बेहतरीन - बेमिशाल फिल्म का सुखद द एन्ड. यह तो हुई फिल्म की बात. अब बात उस उपन्यास की जिस पर यह सदाबहार फिल्म बनी थी. उतरप्रदेश के बलिहार (बलिया जिला) गांव में जन्मे केशव प्रसाद मिश्र की उपन्यास 'कोहबर की शर्त'. 'नदिया के पार' का एंड हैप्पी है, जबकि 'कोहबर की शर्त' का एंड बिल्कुल अलग है. बहुत अच्छा किया की नदियां के पार मे गुंजा और चंदन की शादी करा दी गई. नहीं तो अगर जैसी उपन्यास की कहानी का अंत है अगर ठीक वैसी ही फिल्म भी होती तो लोग देखते- देखते रो पड़ते और आंसू पोछते-पोछते सिनेमा हॉल से बाहर निकलते. यकीं नहीं होता, तो उपन्यास का एक झलक यहां देख - पढ़ लें-
"तिवारी काका के गांव के लिए दिए गए बलिदान के कुछ ही दिन बाद रुपा की भी मौत हो जाती है. और ओंकार का ब्याह गूंजा से हो जाता है. गांव में हर दिन एक - दो लोग मर रहे थे. ओंकार की भी मृत्यु हो जाती है. एक दिन विधवा गूंजा चंदन से, 'बिना तुम्हारी दुलहिन के, तुम्हारे साथ मुझे अकेला कौन रहने देगा. और दूसरा कौन-सा ठौर है, जहां तुम्हारे बिना मैं जी सकती हूं. बोलो न चंदन, मेरे लिए क्या कहते हो.' ओंकार की मृत्यु के बाद गूंजा का मन तो सिमटा, लेकिन देह को बटोर न सकी. तन की कमजोरी धीरे-धीरे बढने लगी. आठ-आठ दिन तक वह नहा न पाती. आषाढ़ बीतते-बीतते गूंजा ने चारपाई पकड ली. चंदन के मुंह पर एक नयी उदासी छाने लगी. चंदन नियम से गूंजा को भोर में उठाता, दतुअन-कुल्ला कराता, दवाई पिलाता, बिस्तर झाडता, दूध देता, वैद्यजी के बताए अनुसार भोजन देता. और गुंजा थी, जो बैसाख की नदी की भांति धीरे-धीरे कम होने लगी. देह खाट पर जैसे सट गई.....और अन्त में ओमकार का बेटा रामू और चंदन रह जाते हैं."
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फिल्म 'नदिया के पार' के आखिरी लम्हे, कमरे में गूंजा और चंदन. भींगी पलकों के साथ दोनों के बीच संवाद. तभी ओंकार कमरे में दाखिल होते हैं और कहते हैं, अरे पागल ये कैसी बातें कर रहे थे तुमलोग, तुमलोग अपनी खुशियां छोड़ दोगे और हम खुश हो जाएंगे. हाँ. गूंजा तुम चिंता न करो यह देवता ही तुम्हारा पतिदेवता बनेगा... और इसके साथ ही एक बेहतरीन - बेमिशाल फिल्म का सुखद द एन्ड. यह तो हुई फिल्म की बात. अब बात उस उपन्यास की जिस पर यह सदाबहार फिल्म बनी थी. उतरप्रदेश के बलिहार (बलिया जिला) गांव में जन्मे केशव प्रसाद मिश्र की उपन्यास 'कोहबर की शर्त'. 'नदिया के पार' का एंड हैप्पी है, जबकि 'कोहबर की शर्त' का एंड बिल्कुल अलग है. बहुत अच्छा किया की नदियां के पार मे गुंजा और चंदन की शादी करा दी गई. नहीं तो अगर जैसी उपन्यास की कहानी का अंत है अगर ठीक वैसी ही फिल्म भी होती तो लोग देखते- देखते रो पड़ते और आंसू पोछते-पोछते सिनेमा हॉल से बाहर निकलते. यकीं नहीं होता, तो उपन्यास का एक झलक यहां देख - पढ़ लें-
"तिवारी काका के गांव के लिए दिए गए बलिदान के कुछ ही दिन बाद रुपा की भी मौत हो जाती है. और ओंकार का ब्याह गूंजा से हो जाता है. गांव में हर दिन एक - दो लोग मर रहे थे. ओंकार की भी मृत्यु हो जाती है. एक दिन विधवा गूंजा चंदन से, 'बिना तुम्हारी दुलहिन के, तुम्हारे साथ मुझे अकेला कौन रहने देगा. और दूसरा कौन-सा ठौर है, जहां तुम्हारे बिना मैं जी सकती हूं. बोलो न चंदन, मेरे लिए क्या कहते हो.' ओंकार की मृत्यु के बाद गूंजा का मन तो सिमटा, लेकिन देह को बटोर न सकी. तन की कमजोरी धीरे-धीरे बढने लगी. आठ-आठ दिन तक वह नहा न पाती. आषाढ़ बीतते-बीतते गूंजा ने चारपाई पकड ली. चंदन के मुंह पर एक नयी उदासी छाने लगी. चंदन नियम से गूंजा को भोर में उठाता, दतुअन-कुल्ला कराता, दवाई पिलाता, बिस्तर झाडता, दूध देता, वैद्यजी के बताए अनुसार भोजन देता. और गुंजा थी, जो बैसाख की नदी की भांति धीरे-धीरे कम होने लगी. देह खाट पर जैसे सट गई.....और अन्त में ओमकार का बेटा रामू और चंदन रह जाते हैं."
Yes i cried a lot, what do you think,,, kya thi kohbar ki शर्त?
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