Wednesday, October 18, 2017

पैसिफिक कम्बैट और जुआ

(5 मिनट में पढ़ें )
दिवाली का जुआ भी धर्म है ! पर क्या सचमुच ?
'पैसिफिक कम्बैट' यानी 'शांतिपूर्ण भिड़ंत'. आधुनिक युग के विचारक मानते हैं कि मनुष्य में लड़ना - भिड़ना एक सहजात मनोवृति है. उसको संतुष्ट रखना आवश्यक है. इस प्रवृति को कैसे संतुष्ट किया जाये की सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे. प्राचीनों के मन में भी यह बात आई होगी. आज इसके लिए अनेक उपाय सोचे गए हैं. खेलकूद की राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं पैसिफिक कम्बैट कही जाती है - शांतिपूर्ण भिड़ंत. जितने की और हारने की लालसा इस से संतुष्ट होती है, पर संघर्ष घातक नहीं होता. क्रिकेट में हिंदुस्तान ने इंग्लैंड को पछाड़ दिया.  देश के एक कोने से दूसरे कोने तक विजयोल्लास की लहर दौड़ गई, पर इंग्लैंड पर हमारा राज्य नहीं हो गया. जीते, मगर किसी का कुछ नुकसान नहीं हुआ. ख़ुशी की लहर अवश्य छा गई. इसे ही 'शांतिपूर्ण भिड़ंत' कहते हैं. दो पक्ष जमकर लड़े पर चोट किसी को ना आई.       
द्यूतक्रीड़ा यानी जुआ का बुरा अंश दांव पर पैसा- रुपया, घर द्वार की बाजी लगाने वाला है. उसे पुराने जमाने में कलह कहते थे. उसको अगर निकाल दिया जाए, तो जुआ भी 'पैसिफिक कम्बैट' ही है. शकुनि को भी यह बात मालूम थी. उन्होंने युधिष्ठिर को कतराते देख कह दिया था कि जुआ का केवल कलह वाला अंश ही बुरा है. वह ना रहे तो इसमें बुराई क्या है! पर बुराई वाला अंश ही छा गया. दुर्भाग्य और कहते किसे हैं? दिवाली बहुत पुराना उत्सव है. बौद्ध ग्रंथों की गवाही पर कम से कम 3000 वर्ष पुराना तो कहा ही जा सकता  है.
प्राचीन काल में जुए के अड्डे की व्यवस्था होती थी. इनका व्यवस्थापक 'सभिक' कहलाता था. सरकार को इनसे अच्छी आमदनी होती थी. जीते हुए द्रव्य का 5% राजा को देना पड़ता था. ना देने पर पूरे का पूरा जब्त हो सकता था. इतना ही हिस्सा सभीक भी पाता था. इनका बहुत बढिया चित्रण मृच्छकटिक नाटक में मिलता है. जुआड़ी  के लिए इस देश में कभी भी सम्मान का भाव नहीं था. उन्हें एक अक्षकितब, अक्षधूर्त आदि कहा जाता था. पुराने जमाने से अनेक प्रकार के खेलों के मिश्रण से जुआ खेलने की विधियों में बराबर परिवर्तन होता रहा है. पाणिनि के समय पांच पांसों का खेल था जिन्हें कृत, त्रेता, द्वापर, कलि और अक्षराज कहा गया है. एक बार यदि कृत का दांव आ गया तो खिलाडी जीतते ही चला जाता था. शकुनि इस कला में प्रवीण थे. इसलिए उंहें कृत हस्त कहा जाता था. धूर्तता इसमें क्या थी यह स्पष्ट नहीं होता पर थी अवश्य. अच्छे जुआड़ी तो मंत्र भी साधते थे. इस मंत्र का नाम अक्षह्रदय था. महाभारत की टीका में नीलकंठ ने ऐसा ही बताया है. आजकल सुना है  कि जुआ ने सूक्ष्म रुप धारण किया है और पूरे जनजीवन पर छा गई है. आधुनिक जीवन ही जुआ बन गया है आप चाहे या ना चाहे जुए के चक्कर में आ ही जाएंगे. दिवाली की रात को जुआ खेलना धर्म के साथ जोड़ दिया गया है. कानून और धर्म में विरोध भाव आ गया है. कानून जुआ को निषिद्ध मानता है. यह और बात है कि हर सरकार लॉटरी के नाम पर जो जूए को प्रोत्साहन दे रही है. 
यक्ष लोगों की प्रसन्नता के उल्लास में मनाई जानेवाली जुआ लक्ष्मी पूजन से जुड़ गई है. धर्म से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है. यह पैसेवालों के अकुंठ विलास से जुड़ा हुआ व्यसन ही है; उससे अधिक कुछ नहीं.  कानून की आंख में धूल झोंकी जा सकती है, धर्म की आंख में नहीं. पर धर्म, रक्षित होकर ही रक्षक बनता है- 'धर्मो - रक्षित रक्षितः'. आजकल कौन उसकी रक्षा की परवा करता है? धर्म के नाम पर भी क्या - क्या नहीं चलता ? दिवाली का जुआ भी धर्म है ! पर क्या सचमुच ?           
साभार -  हजारीप्रसाद द्वेदी ग्रंथावली 

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