Saturday, July 1, 2017

जरा इनकी सुनो, सुनाओ. . .



'न हमें सुनते हैं, ना सुनाते हैं. टीवी वाले पत्रकार कैमरा - माइक लेके आते हैं, कलम - काॅपी वाले भी पत्रकार आते हैं. लेकिन हमसे कोई कभी बात नहीं करता. हम भी न्यूज चैनल देखते हैं, बहसों में भी कभी हम जैसी को नहीं दिखाते. क्या सभी समस्या पुरुष किसानों की ही हैं, हम महिला खेतीहरों की कुछ भी नहीं.' अहले सुबह गुडगांव अब गुरुग्राम से थोड़ा आगे बढते ही एक खेत में कुछ महिलाओं को काम करता देख अनयास ही उनसे बात करने का मन हुआ. उनके पास गया, तो यह सब कुछ सुनने को मिला.
उनमें से एक अनीता जो खुद को ग्रेजुएट बताते हुए कही, आप किसी भी भाषा का न्यूज चैनल देखो या पेपर पढो कभी किसी में महिला किसानों की एक शब्द भी बात होती है. हां आत्महत्या करने वाले की विधवा से भावनात्मक सवाल - जवाब जरुर दिखता - सुनता है. इतना ही भर. मैं भौचक, उनकी खरी खोटी सुनता गया. मैं उनसे समझने - बुझने कुछ और गया था और बात क्या शुरू हो गयी. लेकिन, बात में दम था और वाजीब भी. इसकी पड़ताल करने की भी जरुरत नहीं. यह शायद यद हमारी सहज प्रवृती भी है कि जब भी जेहन में किसान शब्द उभार लेता है, तो पुरुष किसान की ही छवि उभार लेती है. पता नहीं क्यों ऐसा? जबकि हम बचपन से महिलाओं को खेतों में फसलों की कटाई, छटाइ, बुआई, रोपनी, खर-पतवार उखारते....मवेश्यिों के लिए चारा उनका देखभाल, खाद बनाते आदि करते देखते आये हैं. इतना सब करते हुए घर का काम तो है, ही. वाकई अनीता की बातें सौ फीसदी सही है. सरकारी (जनगणना) आंकडों की माने तो देश में लगभग दस करोड़ महिलाएं खेती- किसानी से जुडी हैं. जबकि 2001 में यह आंकडा पाच करोड़ तक ही सीमित था. पिछले 20 सालों में तीन लाख से ज्यादा किसान अत्महत्या कर चुके हैं, ऐसे में महिला किसानों की बातों की अनदेखी......कम से कम किसानों की विधवाओ ( जो अभी भी खेती करने को मजबूर है, क्योंकि आजीविका का दूसरा कोई उपाय नहीं) की भी सुध कोई नहीं लेता दिखता. आंदोलन चाहे जंतर- मंतर पर हो या मंदसौर कहीं भी, सरकार से या किसी कांफ्रेंस में बात करते कोई महिला किसान नहीं दिखतीं. इसलिए, जरा इनकी भी सुनो - सुनाओ.

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