Sunday, July 30, 2017

मोदी को चुनौती देने के लिए कांग्रेस को गोंद बनना पड़ेगा

भला रणक्षेत्र में कमजोर की अगुवाई में कौन लड़ना पसंद करेगा? 

विपक्ष के पास खोने के लिए ज्यादा कुछ नहीं और पाने के लिए बहुत कुछ


इस समय देश की राजनीति में विपक्ष के पास काफी संभावनाएं हैं. दरअसल, विपक्ष के पास खोने के लिए अब ज्यादा कुछ बचा नहीं है. वहीं सत्ता के केंद्र में बैठी भाजपा के लिए अब पाने को बहुत कुछ बचा भी नहीं है. हां, उसे नवीकरण के लिए हाथ पैर मारते रहना होगा. गिने - चुने राज्य बचे हैं, जो देर सबेर उसकी झोली में जाते दिख रहे हैं. विपक्ष की मौजूदा स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि कोई बड़ा चमत्कार ही 2019 में कोई उलटफेर कर सकता है. राजनीतिक हालात इंडिया शाइनिंग से इतर है.  अगर, स्थिति यही बनी रही, तो 2024 का भी सपना देखना भूल जायें. इन सब के बावजूद विपक्ष के लिए काफी संभावनाएं मौजूद हैं. 2014 के बाद हुये दिल्ली व बिहार विधानसभा चुनाव इसके उम्दा उदाहरण हैं. बडे अंतर से विपक्ष ने जीत दर्ज की थी. इसके बाद विपक्ष को कमर कस सियासी मैदान में उतर जाना चाहिए था. लेकिन हुआ ठीक उलट. भाजपा मैदान में और विपक्ष गायब. फिलहाल, विपक्ष में सिद्धांत से ज्यादा व्यक्तिवाद हावी है. परिवारवाद हावी है. एजेंडा सैट करने में असफल है. पीछे - पीछे चल कर केवल विरोध की राजनीति तक सीमित है. जनता से सीधे संवाद का घोर अभाव दखिता है. भ्रटाचार के मामले...  इन सबसे अलग भाजपा मोदी के इर्द-गिर्द ऐसा जाल बुनने में सफल रही है, जिस चक्रव्यूह को भेदने तो दूर उसे चुनौती देता कोई नहीं दिख रहा. भाजपा में अनुशासन व संगठन तौर पर मजबूती दिखाई देती है. जहां किसी पार्टी में झंडा बैनर तक लगाने वाले कार्यकर्ता नहीं बचे, वहीं भाजपा के कार्यकर्ता हरेक चुनाव में एक - एक मतदाता के पास तीन - तीन बार घंटी बजाते दिख रहे हैं. विपक्ष के केंद्र में कांग्रेस गोवा व मणीपुर में मिले जनादेश को भी बचा पाने में असफल रही. ऐसे में भरोसा हो तो कैसे हो? लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की भूमिका अहम है. विपक्ष के पास राज्यसभा में आंकड़े हैं, वहां सरकार को जन संवेदी मुद्दों पर घेरा जा सकता है. लेकिन सदन को न चलने देने व हंगामा के अलावा कोई रणनीति ही नहीं दिखती. विपक्ष अवाम का अवाज बनने में असफल हो रहा है. महंगाई में कमी आई क्या? बेरोजगारी कम हो गई क्या? ऐसे में क्या वाकई अच्छे दिन आ गये? मुद्दों का अभाव नहीं है. मुद्दे भी वही उठाये जा रहे हैं, जिनसे कमजोर होने के बजाए मोदी मजबूत हो रहे हैं. बंगाल में ममता, ओडिशा में पटनायक, तमिलनाडू में डीएमके कोई भी कांग्रेस के साथ हरेक मुद्दे पर मजबूती के साथ खड़े नहीं दिखते. क्योंकि वह कमजोर है. साफ है कांग्रेस उन्हें समझाने में नाकाम है. वाम पार्टियां सबसे खराब दौर से गुजर रही हैं. लगता है उनमे कोई नेता ही नहीं बचा. कांग्रेस को गोंद बनना पडेगा. गोंद बनने के लिए मजबूत होना पडेगा. भला रणक्षेत्र में कमजोर की अगुवाई में कौन लड़ना पसंद करेगा?

No comments:

Post a Comment

इस खबर पर आपका नजरिया क्या है? कृप्या अपने अनुभव और अपनी प्रतिक्रिया नीचे कॉमेंट बॉक्स में साझा करें। अन्य सुझाव व मार्गदर्शन अपेक्षित है.

मंत्रीजी, होम क्वरंटाइन में घुमे जा रहे हैं

 बतौर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री कोरोनाकाल में अश्वनी चैबे की जिम्मेवारियां काफी बढ जानी चाहिए। क्योंकि आम लोग उनकी हरेक गतिविधियों खासक...