Wednesday, July 5, 2017

-------धर्म संबंधी पत्रकारिता का भी एक लेक्चर होना चाहिए...


 





***स्पेशलाइज़ड जर्नलिज़म***

चुनाव के दौरान हम पत्रकार भी अपने-अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं. मतदान में लोगों की भगीदारी बढे, इसके लिए जागरुकता अभियान में सहयोगी की भी भूमिका निभाते हैं. ऑपिनियन पोल और कितने ही सर्वे की कड़ी बनते हैं. पार्टियों को कवर करते हैं. ऐसे में हम भी कहीं न कहीं किसी न किसी पार्टी या उसके विचारधारा से प्रभावीत हुए बगैर नहीं रहते. हम में से कई पगरी, टोपी, तिलक, ब्रासलेट आदि धर्मिक संबंधी चीजें पहनते या लगाते हैं. हम भी भावनात्मक प्राणी हैं. क्योंकि हम कोई रोबोट नहीं हैं. व्यक्तिगत या जिस कंपनी या संगठन के लिए हम काम करते हैं, उसके भी अपनी पसंद व नापसंद होती हैं. लोकतंत्र में सभी की पसंद- नापसंद व विचारों को समान भाव से देखा जाना चाहिए. बगैर किसी पूर्वाग्रह के. शायद यह आदर्शवादी बात हो गयी. लेकिन आजकल हम खुद को पत्रकार कम जज ज्यादा समझ बैठे हैं (बड़े ओहदेदार या पोर्टेलिए). तभी तो हम सांप्रदायिक्ता व धर्मनिरपेक्षता की कसौटी पर हर दहशतगर्दी के वारदातों को परखने की कोशिश करते नजर आ रहे हैं. कई नये शब्द गढ डाले गये हैं. धर्म, नस्ल, जाति, समाज, समुदाय, क्षेत्र, खान- पान आदि को बेहतर तरीके से पेश करने के लिए थोड़ा विशेष अध्ययन कर लेने में गुरेज ही क्या है. खैर, तकनीक की भी इसमें बडी भूमिका हो गयी है. कुछ वैसा ही प्रचलन देखने को मिल रहा है, जैसे मानो युद्ध कवर करने वाला रिपोर्टर बैडमिंटन मैच का लाइव कर रहा होे. या एक पॉलिटिकल रिपोर्टर साइंस संबंधी खबर पर लाइव दे रहा हो. नतीजा कुछ भी हो सकता है, हास्यास्पद, बेवकूफानापन या विनाशक कुछ भी. माफ किजिएगा ! सोशल मीडिया में किसी भी खबर के तह में गये बगैर निराधार कानाफूसी या भीड मैसेज तंत्र के आधार पर अपना निष्कर्ष पेश करने का प्रचलन बढता जा रहा है. अधिकतर मामलों में ऐसा ही लगता है. खासकर, धर्म संप्रदाय आदि से जुडी खबरों में. ऐसी खबरें रजनीतिक व सत्ताधारी या विपक्ष के चश्मे से देखा जाने लगा है. कंपनी या संगठन के आदेश, ब्रेकिंग न्यूज व खुद को बुद्धिजीवी बताने की आपाधापी में खबरों की प्रमाणिकता जांचने और उसे मौलिक तौर पर पेश करना कहीं गुम हो गया है. मुनाफाखोरी व जीहजूरी, जल्द सोहरत, तरक्की व पगार बढ़वाने की भेड़चाल में हम शामिल हो गये हैं. यह अद्भुत दशा मीडिया के सामने बडी चुनौती है. शायद, एक विशेषज्ञ व निष्पक्ष निपक्ष रिपोर्टिंग ही इस दशा से हम सभी को उबार सकती है. इसलिए धर्म संबंधी पत्रकारिता का भी एक लेक्चर होना चाहिए..
# संदर्भ- harmeet shah singh. 'why world urgently needs specialised journalism on religion.'

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