आज मेरा गांव है. घर है. पता नहीं कल होगा या नहीं...
'भरल - भरल छलै बाग बगैचा, सोना कटोरा खेत, देख - देख मोरा हिया फटैया, सगरो पानी गांव ...'. बारिश की फुहारों के बीच सहरसा से सुपौल जाने वाली सड़क पर कार फर्राटा भर रही थी. और 55 साल के ड्राइवर अनवर इस लोक गीत के जरिए हाल ए कोसी बयां कर रहे थे. 'यहां के लोग कभी किसी से मांगते नहीं थे. लेकिन अब लोग सौ - दो सौ के लिए तरसते हैं.' अनवर सुपौल से 10 किमी की दूरी पर दुबियाही पंचायत के बेगमगंज के रहने वाले हैं. सुपौल पहुंचने के बाद कोसी महासेतु बाइपास रोड़ होते हुए जैसे ही कोसी तटबंध सड़क पर पंहुचा, तो नजारा देख अनवर की बातें हकीकत में तब्दील होती नजर आने लगी. लोग अपना बोरिया - बिस्तर गठरी बांधे माथे पर लादे तटबंध की ओर आते दिखे. वहीं रुक गया. अनवर ने बताया, तटबंध के अंदर पानी बढने के कारण लोग अपने - अपने घरों को छोड़ कर आ रहे हैं. लोगों की एक टोली घेर लेती है. गुस्से में पूछते हैं, किस विभाग से आये हैं. पहले एसडीओ को बुलाइये. तब कुछ आगे होगा. लोग सरकार द्वारा नाव व अन्य राहत न उपलब्ध कराये जाने से नाराज हैं. खैर, काफी मान - मुनव्वल के बाद वे लोग माने कि मैं कोई सरकारी अधिकारी नहीं हूं. उन्हीें में से एक रामू मुखिया बताते हैं, 'सबसे ज्यादा परेशानी चारा नहीं मिलने के कारण पशुओं को हो रही है. नाव के सहारे परिजनों व पशुओं को ऊंचे स्थान पर ला रहे हैं. मौसमी सब फसल बर्बाद हो गया.' सरकारी फाइलों में बाढ की अवधि 15 जून से 15 अक्तूबर तक निर्धारित है. यानी साल के चार महीने कोसी नदी से प्रभावित लोग शरणार्थी की जिंदगी जीने पर विवश हैं. एक महिला शीला पासवान रुंधे गले से गांव का हाल बताती हैं, 'खाना त जैसे - तैसे ईंटा थकियाइ के उपर चौकी पर बना लेते थे, लेकिन पखाना पेशाब ...मत पूछू. शीला की बातों से हर घर शौचालय मुहीम जेहन में कौंध गया. अब तटबंध के भीतर रह रहे लोगों के लिए शौचालय निर्माण कैसे हो. सरकार सोचे... लोगों ने बताया कि अभी भी कुछ लोग गांव में घरों की रखवाली के लिए रुके हैं. उनकी हालात के बारे में सोचने से भी डर लगता है. ऐसे हालात में जब कोई बीमार पड़ जाता है, तो आफत कई गुनी बढ जाती है. कोसी की बदलती धारा से लोग खासे चिंतित नजर आते हैं. अनवरुल बड़े मायूसी से कहते हैं, आज मेरा गांव है. घर है. पता नहीं कल होगा या नहीं. सब अनिश्चित है. रोजी-रोजगार नहीं है. लगातार सियान लईका सब बाहर दिल्ली, गुजरात, पंजाब...पलायन करने पर मजबूर हैं.' कोसी सेवा सदन के राजेंद्र झा बताते हैं, जब कोसी तटबंध नहीं था, तब दो-तीन दिन से ज्यादा बाढ नहीं रहता था. ना ही जल जमाव की समस्या. बेहतर फसल पैदावार से लोग खुशहाल थे. इलाके के लोगों के जीवीकोपार्जन का मुख्य स्रोत खेती ही है, जिसे तटबंध के भीतर करने को मजबूर हैं. मैने लोगों से पूछा कि जब साल के चार महीने शरणार्थी के तौर पर जिंदगी बसर करनी पड़ती है. उसके बाद भी जल जमाव की स्थिति रहती है. तो ऐसी दुर्रह जिंदगी से बेहतर है कहीं और घर बसा लिया जाये. कई लोग एक साथ बोल उठे, आप अपना घर, गांव, लोग, समाज छोड़ सकते हैं.... मेरे पास कोई जवाब नहीं था.#kosi #flood
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