Tuesday, October 31, 2017

नेहरा के नाम अनोखा रिकॉर्ड

सचिन तेंदुलकर 
(1.5 मिनट में पढ़े )
भारतीय टीम का न्यूजीलैंड दौरा. दूसरा टेस्ट. हेमिलटन, 19-22 दिसंबर, 2002. मैं खासतौर पर इस मैच में आशीष नेहरा के अनोखे रिकार्ड का उल्लेख करना चाहूंगा. वह टेस्ट क्रिकेट के किसी भी मैच में इकलौते पहले प्लेयर हैं, जो एक ही दिन में दो इनिंग्स में बल्लेबाजी के साथ ही गेंदबाजी दोनों करने का अवसर मिला. दरअसल, पहले दिन हम 8 विकेट खो कर 92 रन बना पाये और नेहरा नाॅट आउट रहे. दूसरे दिन नेहरा फिर बल्लेबाजी के लिए मैदान पर उतरे. हालाकि टीम 99 रनों आॅल आउट हो गई. अब नेहरा गेंदबाजी का कमान संभाला. न्यूजीलैंड की टीम 94 रनों पर सिमट गई. फिर हमलोग दूसरी पारी में 154 रन पर ही सिमट गये. इसके बाद चौथी पारी के लिए किवी टीम उतरी तो एक बार फिर नेहरा के हाथ में गेंद थी. उस एक ही दिन दोनों तरफ के कुल 22 विकेट गिरे. अफसोस, मेजबान टीम 4 विकेट से मैच जीत गयी. लेकिन, नेहरा के नाम अनोखा रिकॉर्ड दर्ज हो गया. 
साभार - Playing It My Way: My Autobiography By Sachin Tendulkar

Saturday, October 28, 2017

जुर्म अगर सरकार का अपमान तो सजा 7 साल कैद-ए-बामुशक्कत...

(3.5 मिनट में पढ़ें  )
इतिहास गवाह है कि पत्रकारिता ने बड़े-बड़े आंदोलनों और क्रांतियों को जन्म दिया. विश्व स्तर पर ऐसी घटना बार-बार घटी, जब पत्रकारिता की अपार शक्ति, उसकी लोकप्रियता और उसकी आलोचना से भयभीत होकर उसे पाबंदी की जंजीरों से जकड़ा दिया गया. पत्रकारिता की शक्ति का जिक्र करते हुए अकबर इलाहाबादी ने कहा था,
'खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो'.
पत्रकारिता का यही रूप हमें 1857 की बगावत के समय भी देखने को मिलता है. उस समय भारतीय पत्रकारों ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की नींद हराम कर रखी थी. इस पर काबू पाने के लिए सख्त कानून का सहारा लेकर बागी पत्रकारों को फांसी दी गई और पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगाया गया और उसके प्रकाशित अंक जब्त कर लिए गए. इस विद्रोह के समय पत्रकारों के दो गुट सक्रिय थे एक गुट सरकार का वफादार था वह अपने पत्रिकाओं में वही खबरें प्रकाशित करता था जो सरकार के हित के अनुरूप होती और उसके जुल्म और अत्याचार पर पर्दा डालने उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य हो गया था. पटना का 'अखबार ए बिहार' इसी श्रेणी में आता है. दूसरा गुट बागी पत्रकारों का था वह अंग्रेजों के कार्यों और उनके अत्याचार और तिरस्कार की आलोचना करना और उनके बुरे उद्देश्य से जनता को अवगत कराना एक पत्रकार की हैसियत से अपना कर्तव्य समझता था और अपने आदर्शों से समझौता करना उसके सिद्धांत के विरुद्ध था. दिल्ली के 'देहली उर्दू अखबार', 'अखबार उल जफर' और 'सादिक उल अखबार' इसी श्रेणी में आते हैं. उस दौर के कई अखबारों के बहुत से अंक खुदाबख्श पुस्तकालय पटना में सुरक्षित हैं.
जून 1857 में प्रकाशित एक विज्ञापन पर नजर डालें- '
जो व्यक्ति सरकार के साथ बगावत रखता हो या बागियों का मित्र हो या सहायक व मददगार या ऐसी बात करें जिससे सरकार का अपमान होता है, प्रमाण मिलने पर साहब कमिश्नर के आदेशानुसार निम्नलिखित सजा का योग्य होगा-
जुर्म- जो व्यक्ति सरकार के साथ बगावत रखता है.
सजा- आजीवन कारावास और फांसी.
जुर्म- जो व्यक्ति मित्र हो या ऐसी बात करें जिससे सरकार का अपमान होता है.
सजा-  7 साल कैद.
जुर्म- जो व्यक्ति बागी का सहयोगी हो.
सजा- 14 साल कैद.
यह अखबार बिहार के सम्मानित पाठक इस कानून पर विशेष ध्यान दें और हर समय इसका ख्याल रखें कि इस प्रकार की कोई गलती उनसे प्रकट ना हो.
साभार- पुस्तक '1857 और बिहार की पत्रकारिता'  

Thursday, October 26, 2017

आ गया है चुनाव

(3 मिनट में पढ़ें )
अब तो हिंदू - मुस्लिम की बातें होंगी ही. हिंदुत्व और इस्लाम खतरे में पड़ेंगे ही. मंदिरों में नेताओं की भीड़ बढ़ेगी ही. ज्योतिषी और बाबा चांदी काटेंगे हीं. अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा देने के नारे लगेंगे ही. आ गया है चुनाव. अब तो नेताओं की गरीबी हटाने की याद आएगी ही. विधवा पेंशन छात्रवृतियां बांटने का धंधा चलेगा ही. दारू बटेगी ही. कंबल, धोती, साड़ी, बटेगी ही. कट्टे बिकेंगे ही. समाजवाद याद आएगा ही. आश्वासन दिए और लिए जाएंगे ही. वोट करेंगे ही. फिर से छले जाने के लिए तैयार हो जाएंगे ही. आ गया है चुनाव. जाति एकता सम्मेलन होंगे ही. विकास की बातें होंगी ही. रोजगार देने का भरोसा दिया जाएगा ही. लोगों की तालियां नेता सुनेंगे ही. गांव - गांव की धूल नेता फाकेंगे ही. आ गया है चुनाव. हेलीकॉप्टर उड़ेंगे ही. डीजल फूंकेगा ही. सड़कों पर धूल उड़ेगी ही. सिद्धांत याद आएंगे ही. दल बदले जाएंगे ही. टोपिया पहनी और पहनाई जाएंगी ही. जो कल तक संतुष्ट थे उन्हें टिकट नहीं मिला तो वह असंतुष्ट होंगे ही. गुंडों की पूछ बढ़ेगी ही. हथियार खुलेआम मिलेंगे ही. चुनाव आयोग सख्त दिखेगा ही. नेताओं की नींद उड़ेगी ही. कार्यकर्ता जमकर कमाएंगे ही. हर तरह के दलालों का हर दल में महत्व बढ़ेगा ही. आ गया है चुनाव. चुनाव को तो आना ही होता है. देश में लोकतंत्र है तो बेचारा वह आएगा ही. वोट देने के अधिकार का वोटर से इस्तेमाल कराएगा ही. बाद में जनता का जो हाल होना है वह होगा ही. नेता एयर कंडीशनर कार में चलेंगे ही. हवाई जहाज में उड़ेंगे ही. मजे करने वाले मजे करेंगे ही. जो रोते हैं वह रोते रहेंगेही. जिनकी पहले भी कोई नहीं सुनता था अब भी कोई नहीं सुनेगा ही. लोकतंत्र चलता है तो चलता रहेगा ही. उदारीकरण की गति बढ़ेगी ही. जहां देश के नेताओं के आका उनसे देश को ले जाने को कहेंगे वहां देश जाएगा ही. गरीब भी क्या करेगा अगली बार फिर से वोट देगा ही.... 

Monday, October 23, 2017

छठ एक स्वदेशी आंदोलन...

(1 मिनट में पढ़ें )
छठ की गहरी जड़ें हमारी कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था से जुड़ती हैं. उसके बिंब लोकगीत में देखने हों तो छठ के गीत गुनगुनाए जिसमें 'बांस की बहंगिया' तो है ही 'केरवा के घवद, भी है, 'कांचे ही बांस के बहंगिया बहंगी लचकत जाए'...  बांस का सूप, टोकरी, हल्दी के पौधे, चावल, गेहूं, कद्दू, अदरख, नारियल, नींबू, ईंख और न जाने क्या क्या...  यह सारी वस्तुएं अपनी शुद्ध प्राकृतिक रूप में ही मान्य है. ना पैकेट वाला आटा चलेगा और ना बाजार पर कब्जा करती कोई डिब्बा बंद वस्तु. छठ एक संक्षिप्त स्वदेशी आंदोलन धर्म है और स्त्री की मंगल कामना का पर्व भी.... 

Friday, October 20, 2017

इजरायली -फिलिस्तीनी किसान 'ऑलिव ऑयल' से बना रहे हैं शांति की राह

गुड न्यूज़ (2 मिनट में पढ़ें )
इजरायल और फिलिस्तीन के बीच जानी दुश्मनी के कई किस्से आपने सुने होंगे. खूनी इतिहास के बीच क्या ऐसे में दोनों मुल्क साथ मिलकर कोई एक काम भी कर सकते हैं? लेकिन, दोनों देशों के बीच कुछ किसान शांति का दूत बन कर उभरे हैं. और जरिया बना है, ऑलिव आॅयल (जैतून का तेल ). 'द नियर इस्ट फाउंडेशन प्रोजेक्ट' के तहत बाॅर्डर के इतर दोनों मुल्कों के किसान तेल पैदावार व इसके व्यापार में बढोतरी लाने की दिशा में आगे बढे हैं. फाउंडेशन के फिलिस्तीनी प्रमुख सलाह अबू इशेह के अनुसार, यूएयएड द्वारा फंडेड यह प्रोजेक्ट दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग के जरिए शांति बहाली का एक जरिया बनकर उभरा है. दोनों मुल्कों के किसान व व्यापारी आॅलिव आॅयल को लेकर एक मंच पर आते दिख रहे हैं. इजरायल के लगभग 90 गांव के 2000 आॅलिव आॅयल उत्पादक, 25 मिल मालिक और 50 व्यापारी इस प्रोजेक्ट से जुडे हैं. एक फिलिस्तीनी किसान सोमाया स्वालमेह कहते हैं, इजरायली किसान आॅलिव आॅयल के उत्पादन में बेजोड हैं, इसलिए हम उनसे काफी कुछ सीख सकते हैं. दोनों देश के बाजार भी लगभग एक हैं, जहां यह तेल बेचा जाता है. तमाम झगडों के बीच दोनों मुल्कों के बीच बाॅर्डर पार व्यापार समझौता कायम है. आॅलिव आॅयल का उत्पादन और व्यापार वह बेहतरीन जरिया बन कर उभरा है, जिसके तहत दोनों देशों के लोगों के बीच बात-मुलाकात होने लगी है. शांति बहाली के लिए बात-मुलाकात एक अहम कडी है. कही बात पार भरोसा नहीं तो वीडियो देखने के लिए इस लिंक को चटकाएं- https://youtu.be/94frt6YtadU
source - goodnews.network   

Wednesday, October 18, 2017

वह नोबेल विजेता भारतीय वैज्ञानिक, जिसकी एक क्लास के सभी छात्रों को भी यह सम्मान मिला...

(2.5 मिनट में पढ़ें )
---एक ही परिवार के दो सदस्य भी नोबेल पुरस्कार से सम्मानित---
वह तो खुद नोबेल पुरस्कार विजेता बने ही, साथ ही उनकी एक क्लास के सभी छात्र भी इस पुरस्कार से सम्मानित हुए. इतना ही नहीं उनके परिवार से दो सदस्य चाचा-भतीजे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए. आज उन्हीं महान वैज्ञानिक का जन्म दिवस है. डॉ॰ सुब्रमण्यम चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर, 1910 को लाहौर (अब पाकिस्तान में) में हुआ था. भारतीय लोग हमेशा से ही भौतिकी की मुख्य धारा में रहे हैं. हमारे युवाओं के लिए यह जानना बहुत जरुरी है कि भौतिकी में हमारे दो वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार प्राप्त हो चुका है, जिनमें सीवी रमन को साल 1930 में और सुब्रमण्यम चंद्रशेखर को 1983 में यह सम्मान मिला. एस चंद्रशेखर, सीवी रमन के भतीजे थे. 24 वर्ष की अल्पायु में सन् 1934 में ही उन्होंने तारे के गिरने और लुप्त होने की अपनी वैज्ञानिक जिज्ञासा सुलझा ली थी. इस खोज के लिए उन्हें लगभग 50 साल का लंबा इंतजार करना पडा, नोबेल पुरस्कार पाने के लिए. अब दिलचस्प बात उनकी क्लास और उसके सभी छात्रों को नोबेल मिलने की. 1940 दशक के मध्य में एस चंद्रशेखर लगभग 110 किमी खुद गाडी ड्राइव कर विलियम्स बे से शिकागो यूनिवर्सिटी जाया करते थे. यह सिलसिला हफ्ते दर हफ्ते चलता रहा. वह अपना बेशकीमती समय व उर्जा खर्च अपने क्लास के छात्रों को पढाने के लिए कर रहे थे. इस क्लास में दो ही छात्र थे. लेकिन, जब 1957 में भौतिकी के लिए नोबेल पुरस्कार की घोषणा हुई, तो उनकी क्लास के सभी यानी दोनों छात्रों का नाम इसमें शामिल रहे. मेसर्स ली और यंग. इसके 26 साल बाद खुद सुब्रमण्यम चंद्रशेखर को यह पुरस्कार मिला.

पैसिफिक कम्बैट और जुआ

(5 मिनट में पढ़ें )
दिवाली का जुआ भी धर्म है ! पर क्या सचमुच ?
'पैसिफिक कम्बैट' यानी 'शांतिपूर्ण भिड़ंत'. आधुनिक युग के विचारक मानते हैं कि मनुष्य में लड़ना - भिड़ना एक सहजात मनोवृति है. उसको संतुष्ट रखना आवश्यक है. इस प्रवृति को कैसे संतुष्ट किया जाये की सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे. प्राचीनों के मन में भी यह बात आई होगी. आज इसके लिए अनेक उपाय सोचे गए हैं. खेलकूद की राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं पैसिफिक कम्बैट कही जाती है - शांतिपूर्ण भिड़ंत. जितने की और हारने की लालसा इस से संतुष्ट होती है, पर संघर्ष घातक नहीं होता. क्रिकेट में हिंदुस्तान ने इंग्लैंड को पछाड़ दिया.  देश के एक कोने से दूसरे कोने तक विजयोल्लास की लहर दौड़ गई, पर इंग्लैंड पर हमारा राज्य नहीं हो गया. जीते, मगर किसी का कुछ नुकसान नहीं हुआ. ख़ुशी की लहर अवश्य छा गई. इसे ही 'शांतिपूर्ण भिड़ंत' कहते हैं. दो पक्ष जमकर लड़े पर चोट किसी को ना आई.       
द्यूतक्रीड़ा यानी जुआ का बुरा अंश दांव पर पैसा- रुपया, घर द्वार की बाजी लगाने वाला है. उसे पुराने जमाने में कलह कहते थे. उसको अगर निकाल दिया जाए, तो जुआ भी 'पैसिफिक कम्बैट' ही है. शकुनि को भी यह बात मालूम थी. उन्होंने युधिष्ठिर को कतराते देख कह दिया था कि जुआ का केवल कलह वाला अंश ही बुरा है. वह ना रहे तो इसमें बुराई क्या है! पर बुराई वाला अंश ही छा गया. दुर्भाग्य और कहते किसे हैं? दिवाली बहुत पुराना उत्सव है. बौद्ध ग्रंथों की गवाही पर कम से कम 3000 वर्ष पुराना तो कहा ही जा सकता  है.
प्राचीन काल में जुए के अड्डे की व्यवस्था होती थी. इनका व्यवस्थापक 'सभिक' कहलाता था. सरकार को इनसे अच्छी आमदनी होती थी. जीते हुए द्रव्य का 5% राजा को देना पड़ता था. ना देने पर पूरे का पूरा जब्त हो सकता था. इतना ही हिस्सा सभीक भी पाता था. इनका बहुत बढिया चित्रण मृच्छकटिक नाटक में मिलता है. जुआड़ी  के लिए इस देश में कभी भी सम्मान का भाव नहीं था. उन्हें एक अक्षकितब, अक्षधूर्त आदि कहा जाता था. पुराने जमाने से अनेक प्रकार के खेलों के मिश्रण से जुआ खेलने की विधियों में बराबर परिवर्तन होता रहा है. पाणिनि के समय पांच पांसों का खेल था जिन्हें कृत, त्रेता, द्वापर, कलि और अक्षराज कहा गया है. एक बार यदि कृत का दांव आ गया तो खिलाडी जीतते ही चला जाता था. शकुनि इस कला में प्रवीण थे. इसलिए उंहें कृत हस्त कहा जाता था. धूर्तता इसमें क्या थी यह स्पष्ट नहीं होता पर थी अवश्य. अच्छे जुआड़ी तो मंत्र भी साधते थे. इस मंत्र का नाम अक्षह्रदय था. महाभारत की टीका में नीलकंठ ने ऐसा ही बताया है. आजकल सुना है  कि जुआ ने सूक्ष्म रुप धारण किया है और पूरे जनजीवन पर छा गई है. आधुनिक जीवन ही जुआ बन गया है आप चाहे या ना चाहे जुए के चक्कर में आ ही जाएंगे. दिवाली की रात को जुआ खेलना धर्म के साथ जोड़ दिया गया है. कानून और धर्म में विरोध भाव आ गया है. कानून जुआ को निषिद्ध मानता है. यह और बात है कि हर सरकार लॉटरी के नाम पर जो जूए को प्रोत्साहन दे रही है. 
यक्ष लोगों की प्रसन्नता के उल्लास में मनाई जानेवाली जुआ लक्ष्मी पूजन से जुड़ गई है. धर्म से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है. यह पैसेवालों के अकुंठ विलास से जुड़ा हुआ व्यसन ही है; उससे अधिक कुछ नहीं.  कानून की आंख में धूल झोंकी जा सकती है, धर्म की आंख में नहीं. पर धर्म, रक्षित होकर ही रक्षक बनता है- 'धर्मो - रक्षित रक्षितः'. आजकल कौन उसकी रक्षा की परवा करता है? धर्म के नाम पर भी क्या - क्या नहीं चलता ? दिवाली का जुआ भी धर्म है ! पर क्या सचमुच ?           
साभार -  हजारीप्रसाद द्वेदी ग्रंथावली 

राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने मनाई दिवाली


Tuesday, October 17, 2017

'भात-भात' कहते मर गई

कोयली देवी- चावल लाने गई थी. लेकिन मुझसे कहा गया कि मुझे राशन नहीं दिया जायेगा. मेरी बेटी 'भात-भात' कहते मर गई. झारखंड के सिमडेगा में एक 11 वर्षीय लडकी की मौत भूख की वजह से हो गई. राशन न मिलने की वजह उसके आधार के साथ पीडीएस लिंक न होना बताई जा रही है. सरकार का रटा-रटाया जवाब, हम इस मामले को देखेंगे.
स्रोत - ANI

पहले कैप्टन कूल 'जंबो' की फोटोग्राफी से आप बोल्ड हो जाएंगे

(3  मिनट में पढ़ें)
भारतीय क्रिकेट में लेग स्पिनर तो आएंगे और जाएंगे, लेकिन कुंबले जैसा महान और वह भी सज्जन स्पिनर शायद ही भारतीय टीम को फिर मिलेगा. और हां, पहले 'कैप्टन कूल' तो कुंबले ही थे. भारतीय टीम प्रायः फिरकी गेंदबाजों पर अपनी सफलता के लिए आश्रित रही है. लेग ब्रेक गुगली गेंदबाजी की प्रासंगिक यात्रा भारतीय क्रिकेट में सीएस नायउू, अमीर इलाही, केकी तारापोर, सदाशिव शिदें, सुभाष गुप्ते, वीवी कुमार, चंद्रशेखर, लक्ष्मण, शिवरामकृष्णन के युग के बाद अनील कुंबले ने सफलता की उस उंचाई तक पहुंचा दिया, जहां पहुंचना इस शैली के भावी स्पीनर के लिए हमेशा चुनौती बना रहेगा. अपनी लंबी टांगों के कारण जंबो के नाम से जाने वाले इस खिलाडी का जन्म 17 अक्टूबर, 1970 को हुआ था. टेस्ट क्रिकेट में 40,850 गेंद डालकर 619 विकेट जबकि वन डे में 14, 496 गेंद में 337 विकेट चटकाए. 66 बार एक इनिंग में चार या इससे अधिक विकेट लेने वाले जंबो. एक इनिंग में सभी 10 विकेट लेने वाले. वह भी पाकिस्तान के खिलाफ. बेहतरीन. कभी बॉलिंग के लिए खुद कभी कोचिंग भले ही न ली लेकिन भारतीय टीम के कोच बने. हाल ही में उन्होंने विवादों को तूल न देते हुए इस्तीफा दे दिया. फ़िलहाल वह अपने जुनून वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी में व्यस्त हैं.
कुंबले अपने वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी के जुनून के बारे में  कहते हैं, खेल के प्रति प्रतिबद्धता और जुनून के कारण मैंने बहुत सी यात्राएं की. इस दौरान भी हर देश में वन्यजीव गतिविधि का पता लगाने के लिए मैं बहुत उत्सुक रहता था. भारत में विशाल वन्यजीव भंडारों से लेकर श्रीलंका, केन्या, कैरिबियन, दक्षिण अफ्रीका आदी तक हर जगह मुझे मंत्रमुग्ध करती हैं. वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी भले ही मज़ेदार शब्द हो, लेकिन खुद में एक बहुत बड़ी चुनौती भी है. कई बार एक बेहतरीन तस्वीर के लिए घंटो इंतजार करना पड़ता है. एक हल्के आवाज से भी जानवर भाग जाते हैं. कई बार मौसम दगा दे जाता है. इन सब के बाद सही तस्वीर मिलने का रोमांच और खुशी का किसी अन्य चीजों से तुलना ही नहीं किया जा सकता. 
देखिए उनके द्वारा कैद गई कुछ बेहतरीन तस्वीरें...      







Monday, October 16, 2017

आप सभी को धनतेरस की हार्दिक शुभकामनायें और बधाई ।


देखिये जनाब, पीएम तो ये भी हैं...

(2.5 मिनट में पढ़ें )
नीदरलैंड (डच) का जीडीपी के लिहाज से विश्व में 16वां स्थान है. एक करोड़ 71 लाख आबादी वाला यह देश अन्य मापदंडों पर भी काफी समृद्धशाली है. इसी साल जून महीने में पीएम मोदी ने भी नीदरलैंड की यात्रा की थी. तब पीएम मोदी ने अपने ट्विटर एकाउंट पर डच पीएम से मिली सौगात की तस्वीर साझा की थी. तस्वीर में पीएम मोदी साइकिल पर बैठे हैं और मुस्करा रहे हैं. तस्वीर में दिख रहा है कि डच प्रधानमंत्री मार्क रूट उनके बगल में खड़े हैं. वे भी ठहाका लगा रहे हैं. पीएम मोदी ने लिखा था, 'प्रधानमंत्री रूट का साइकिल के लिए धन्यवाद.' 41,543 वर्ग किलोमीटर में फैले व आर्थिक तौर से मजबूत देश के बावजूद प्रधानमंत्री काॅनवाय में नहीं चलते. कोई लाव लश्कर नहीं. पीएम रुट पीएमओ सुबह साइकिल से आते हैं और साइकिल से ही अपने आवास वापस जाते हैं. दो दिन पहले ही उन्होंने पीएम पद पर 7 साल पूरा किया है. रुट 14 अक्तूबर 2010 से पीएम हैं. वह अविवाहित हैं. पीएम होते हुए भी वह हरेक सप्ताह दो घंटा एक सेकेंड्री स्कूल में पढाते हैं. दरअसल, नीदरलैंड में साइकिल लोगों के जीवन का हिस्सा है. डेढ़ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले इस देश में 1.8 करोड़ साइकिलें हैं. जिस देश में आवागमन का यह जरिया इतना महत्वपूर्ण है अब 26 अक्टूबर को वे तीसरी बार सरकार बनाने जा रहे हैं. हाल ही में उनकी एक फोटो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही है, जिसमें रॉयल पैलेस के पास साइकिल का स्टैंड लगाते दिख रहे हैं. यहां वह देश के राजा विलियम अलेक्जेंडर से मिलने के लिए आए हुए थे. दुर्भाग्य से बढ़ते प्रदूषण के बाद भी भारत में इस गौर नहीं किया जा रहा है. बढ़ते प्रदूषण को देखते हुए भारत में भी साइकिलिंग को बढ़ावा मिलना चाहिए.

Sunday, October 15, 2017

छत्रपति शिवाजी के 'सरपाटिल' जेल से बहार नहीं आना चाहते...

(4 मिनट में पढ़ें )
जेल में कौन रहना चाहता है? जाहिर है कोई नहीं, क्योंकि हरेक को आजादी पसंद है. लेकिन एक ऐसा कैदी है जो जमानत लेने को तैयार नहीं है. क्योंकि प्राचीन हथियारों पर शोध करने एवं पुस्तकें लिखने के लिए उसे जेल से ज्यादा उपयुक्त जगह दूसरी नहीं लगती. जमानत की बात पर वह कहते हैं, जो काम वह कर रहे हैं, उसे करने के लिए जेल जैसी शांति उन्हें बाहर नहीं मिल पाएगी. 50 वर्षीय राकेश धावडे नौ साल पहले 2008 को नासिक के मालेगांव कस्बे में हुए विस्फोटकांड में आरोपी हैं. इसके कुछ दिन बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था. वह तभी से जेल में हैं. इस मामले में अन्य आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और लेफ्टीनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित सहित अनेक आरोपियों को एक के बाद एक जमानत मिल चुकी है. लेकिन धावडे जमानत लेने को तैयार नहीं हैं. क्योंकि वह जेल में प्राचीन हथियारों पर किताब लिख रहे हैं. जेल में रहते हुए अलग-अलग विषयों पर उन्होंने करीब 15 पुस्तकें लिखी हैं. जमानत के लिए परिजनों के आग्रह करने पर वह कहते हैं कि जो काम वह कर रहे हैं, उसे करने के लिए जेल जैसी शांति उन्हें बाहर नहीं मिल पाएगी. पेशे से वकील उनकी छोटी बहन नीता धाबडे बताती हैं कि स्वभाव से गंभीर प्रकृति के राकेश की प्राचीन हथियारों पर शोध की अभिरुचि वंशानुगत है. उनके पूर्वज छत्रपति शिवाजी महाराज की सेना में हथियार तैयार करने का काम करते थे. उन्हें शिवाजी की तरफ से धावडे-सरपाटिल की उपाधि भी मिली थी. शिक्षा पूरी करने के बाद राकेश ने नौकरी भी पुणे के राजा केलकर दिनकर म्यूजियम में की. लेकिन कुछ वर्ष बाद ही वहां से अलग होकर उन्होंने ‘इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑफ ओरियंटल आर्म्स एंड आर्मरी’ नामक संस्था बना ली. यह संस्था जगह-जगह बच्चों के लिए प्राचीन हथियारों की प्रदर्शनी लगाती थी. नीता कहती हैं कि लोग तलवार को सिर्फ एक हथियार के रूप में देखते होंगे. लेकिन राकेश उस तलवार को देखकर उसकी बनावट, उसके इतिहास, उसमें प्रयुक्त धातु इत्यादि पर घंटों बोल सकते हैं. 2005 में बनी फिल्म ‘मंगल पांडेः द राइजिंग’ में प्राचीन हथियारों का प्रयोग राकेश की सलाह पर ही किया गया था. राकेश की इसी रुचि के कारण उन्हें सन् 2000 में इंग्लैंड के एक संग्रहालय के निमंत्रण पर दो बार न सिर्फ वहां जाने का मौका मिला, बल्कि वह रॉयल आर्म्स एंड आर्मर सोसायटी के सदस्य बननेवाला पहला भारतीय होने का सम्मान भी हासिल हुआ. कई मामलों में अब वह बरी भी हो चुके हैं. 2003 के परभानी ब्लास्ट मामले में उन्हें बरी किया जा चूका है. नीता कहती हैं कि जेल में रहकर पुस्तकें प्रकाशित करवाने के लिए भी राकेश को जेल में लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी. आखिरकार विशेष जज एस.डी.टेकाले ने न सिर्फ उन्हें पुस्तकें प्रकाशित करवाने की अनुमति दी, बल्कि उनके द्वारा किए जा रहे शोधकार्य की प्रशंसा भी की है. हालांकि आर्थिक तंगी के कारण अभी तक उनकी कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी है.
संदर्भ साभार- दैनिक जागरण  

किसी मंच पर महिला किसान नहीं दिखतीं

@राष्ट्रीय महिला किसान दिवस विशेष
(7 मिनट में पढ़ें )
'न हमें सुनते हैं, ना सुनाते हैं. टीवी वाले पत्रकार कैमरा - माइक लेके आते हैं, कलम - काॅपी वाले भी पत्रकार आते हैं. लेकिन हमसे कोई कभी बात नहीं करता. हम भी न्यूज चैनल देखते हैं, बहसों में भी कभी हम जैसी को नहीं दिखाते. क्या सभी समस्या पुरुष किसानों की ही हैं, हम महिला खेतीहरों की कुछ भी नहीं.' अहले सुबह गुडगांव अब गुरुग्राम से थोड़ा आगे बढते ही एक खेत में कुछ महिलाओं को काम करता देख अनयास ही उनसे बात करने का मन हुआ. उनके पास गया, तो यह सब कुछ सुनने को मिला. उनमें से एक अनीता जो खुद को ग्रेजुएट बताते हुए कही, आप किसी भी भाषा का न्यूज चैनल देखो या पेपर पढो कभी किसी में महिला किसानों की एक शब्द भी बात होती है. हां आत्महत्या करने वाले की विधवा से भावनात्मक सवाल - जवाब जरुर दिखता - सुनता है. इतना ही भर. मैं भौचक, उनकी खरी खोटी सुनता गया. मैं उनसे समझने - बुझने कुछ और गया था और बात क्या शुरू हो गयी. लेकिन, बात में दम था और वाजीब भी. इसकी पड़ताल करने की भी जरुरत नहीं. यह शायद यद हमारी सहज प्रवृती भी है कि जब भी जेहन में किसान शब्द उभार लेता है, तो पुरुष किसान की ही छवि उभार लेती है. पता नहीं क्यों ऐसा? जबकि हम बचपन से महिलाओं को खेतों में फसलों की कटाई, छटाइ, बुआई, रोपनी, खर-पतवार उखारते....मवेश्यिों के लिए चारा उनका देखभाल, खाद बनाते आदि करते देखते आये हैं. इतना सब करते हुए घर का काम तो है, ही. वाकई अनीता की बातें सौ फीसदी सही है. सरकारी (जनगणना) आंकडों की माने तो देश में लगभग दस करोड़ महिलाएं खेती- किसानी से जुडी हैं. जबकि 2001 में यह आंकडा पाच करोड़ तक ही सीमित था. पिछले 20 सालों में तीन लाख से ज्यादा किसान अत्महत्या कर चुके हैं, ऐसे में महिला किसानों की बातों की अनदेखी......कम से कम किसानों की विधवाओ ( जो अभी भी खेती करने को मजबूर है, क्योंकि आजीविका का दूसरा कोई उपाय नहीं) की भी सुध कोई नहीं लेता दिखता. आंदोलन चाहे जंतर- मंतर पर हो या मंदसौर कहीं भी, सरकार से या किसी कांफ्रेंस में बात करते कोई महिला किसान नहीं दिखतीं. इसलिए, जरा इनकी भी सुनो - सुनाओ.
हम आप चाहे जितना भी नजरंदाज कर लें, लेकिन आने वाला समय इनकी जिद के सामने सब बौना पड़ जायेगा. कुछ दिन पहले बिहार के समस्तीपुर जाना हुआ. मोहद्दीनगर से विद्यापति धाम यात्रा के दौरान की एक वाक्या है. खेत में काम रही कुछ महिलाएं मिलीं. उनमें से एक ने अपना नाम बबीता बताया. जैसे ही मैने कहा 'बबीता देवी' यह बताइए... वह एक दम से रोकते हुए बोल पड़ी. देवी. देवी काहे? देवी नै. देवी त भगवान होवे हथिन. जिनकर हम सब पूजा करै हियै. हुंवा देखु. उ पेड़ के नीचे देवी माई के मंदिर हइ. हम किसान हती. किसान. इसके बाद मैं और सवाल क्या करता. सिर्फ उन्हें सुनता रहा. उन्होंने बताया, पहले हमें जो कहा जाता था, वैसा ही करना हमारी मजबूरी थी. अब हम खेत से संबंधी हरेक बीज, खाद, बुआइ, कटाई, पटवन ... सब कुछ का निर्णय करते हैं. वहां कुछ किसान (अब केवल औरत या महिला कहने की हिम्मत नहीं रही) अपने नौनिहालों  को गोद में लिए खडी थी. बगल में ही तीन से पाच साल तक के बच्चे मिट्टी  में  लोट - पोत के खेल रहे थे. बबीता बगैर रुके सुना रही थी. केवल पुरुष को ही किसान समझा जाता है, क्योंकि उनके नाम पर खेत है. हम हमेशा से खेत में काम करते आ रहे थे, लेकिन एक पैसा मुयस्सर नहीं होता था. कई बार हमारे बच्चे भूखे सो जाते थे. हमारी जिंदगी तो परिवार के लिए खाना बनाने और खेत में काम करने तक ही सीमित थी. अब हमारे नाम पर खेत है. हाथ में पैसा है. बचाते हैं. पहले से बेहतर खाते खिलाते हैं.

देश में कुल खेती के जमीन का महज 13 फीसदी पर ही महिलाओं का मालिकाना हक है. बाजार से लेकर निर्णायक मंडल तक से महिलाएं अलग- थलग हैं. ऐसे में उन्हें जानकारी का अभाव लाजमी है. और इस कारण वे निर्णायक भूमिका में नहीं है. आत्मविश्वास आत्मविस और आत्मनिर्भरता के लिए बदलाव आवश्यक है. हम लोग बचपन से सुनते आ रहे हैं, जब राजा जनक के राज्य में सुखाड़ पड़ा था, तब राजा के साथ रानी ने खेत में हल चलाया था, तब कहीं जाकर बारिश हुई थी. इसलिए खुशहाली के लिए महिला किसानों की अनदेखी कानूनी अपराध नहीं तो नैतिक अपराध तो है ही..

Saturday, October 14, 2017

भारत रत्न डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलामजी की जन्म जयंती पर शत - शत नमन...


रावडी छात्रों को नहीं मिलता इनविटेशन@पटना यूनिवर्सिटी

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1942, भारत छोडो आंदोलन के बीच पटना यूनिवर्सिटी का सिल्वर जुबली समारोह. कवि मैथिली शरण गुप्त आने वाले थे. आंदोलनरत छात्रों में समारोह को लेकर उत्साह चरम पर था. लेकिन यह क्या बिहार नेशनल कॉलेज यानी बीएन कॉलेज के छात्रों को इनविटेशन ही नहीं. बिहार के पूर्व मुख्य सचिव श्री एल दयाल तब बीएन कॉलेज के छात्र थे. Patna: A Paradise Lost! किताब में उनके हवाले से लिखा गया है,' कॉलेज का रेप्युटेशन सही नहीं था. कॉलेज के छात्रों को रावडी समझा जाता था. लिहाजा छात्रों को सिल्वर जुबली समारोह का इनविटेशन नहीं भेजा गया. प्रसिद्ध गांधीवादी रज़ी अहमद (तब छात्र) को किसी भी तरह इनविटेशन कार्ड छापने वाली जगह का पता चल गया. फिर क्या था. कुछ ले- दे के कुछ इनविटेशन कार्ड का जुगाड़ हो गया. और ऐसे हम समारोह में शामिल हो गये.' शताब्दी वर्ष में भी कुछ पुराने छात्रों मसलन लालू प्रसाद, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा को इनविटेशन को लेकर विवाद हुआ. हालांकि, बाद में शॉटगन ने स्वीकार किया कि उन्हें इनविटेशन मिला लेकिन देर से.      
चीफ गेस्ट नहीं मिले 
पटना यूनिवर्सिटी अपनी स्थापना का 100 वर्ष पिछले साल 2016 में ही पूरा कर लिया था. 'प्रभात खबर' के अनुसार,' उस वक़्त कुलपति प्रो. वाइसी सिम्हाद्रि दिल्ली में कार्यक्रम के लिए मुख्य अतिथि की तलाश करते रह गए. और इसी कारण 2016 में शताब्दी वर्ष समारोह नहीं मना पाया.      
सन 1912 में बंगाल से अलग हो बिहार और ओडिशा राज्य अस्तित्व में आये. पटना के बुद्धिजीवियों ने राज्य में अपना एक अलग यूनिवर्सिटी की स्थापना की मांग की. तब तक बिहार के साथ ही ओडिशा के काॅलेज कलकत्ता यूनिवर्सिटी के अंतर्गत आते थे. एक कमिटी गठित हुई. कमिटी ने मार्च 1914 में रिपोर्ट दी. पहले फुलवारीशरीफ में यूनिवर्सिटी भवन बनना था. लेकिन बाद में बदलाव कर दिया गया. पटना यूनिवर्सिटी एक्ट को लेकर भी आंदोलन की अपनी एक अलग कहानी है. आखिरकार, 1 अक्तूबर 1917 को पटना यूनिवर्सिटी अस्तित्व में आया. जेजी जेनिंग्स पहले वीसी बने और आजादी के बाद सुल्तान अहमद पहले वीसी बने. दसवां सबसे पुराना यूनिवर्सिटी के तौर पर भी जाना जाता है. यूनिवर्सिटी के द्वारा वर्ष 1918 में पहली परीक्षा आयोजित हुई.
परीक्षा                                  शामिल अभ्यार्थी                 पास अभ्यार्थी
मैट्रिकुलेशन                          3679                                   1696 
आईए                                    830                                     421
आईएससी                             156                                     109 
बीए                                       462                                     195 
बीएससी                                34                                        22 
एमए                                     10                                        6 
बीएड                                     12                                       11
फाइनल लॉ                            74                                       44

Friday, October 13, 2017

अद्भुत. पहली बार इन 'म्याऊ' को देखिए...

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इस तस्वीर को देखकर धोका मत खाइए!भले ही आपको पहली नजर में यह सामान्य बिल्ली के बच्चे की तरह दिखें. वास्तव में ये छोटे से खरगोश जैसे फर वाले जंगली सेंड कैट यानि रेत बिल्ली के बच्चे हैं. बेहद मायावी. सबसे बड़ी बात यह है कि इन्हे पहली बार उनके प्राकृतिक निवास स्थान में फिल्माया गया है. कुछ हफ्ते पहले मोरक्कन सहारा में वैज्ञानिकों ने इन बिल्ली के बच्चों को देखा था. रेत बिल्ली को देख पाना काफी दुर्लभ है, क्योंकि वे अपना कोई भी निशानी नहीं छोड़ती. अक्सर वे रात में ही चहलकदमी करती हैं. बिग कैट संरक्षण से जुड़ी एजेंसी पैंथेरा के फ्रांसीसी शाखा के प्रबंध निदेशक ग्रेगरी ब्रेटन का कहना है कि उनकी टीम वर्ष 2013 से ही अफ्रीका में रेत की बिल्लियों पर शोध कर रही है. और हालिया सफलता उनके लिए मील का पत्थर जैसा है. ब्रेटन कहते हैं, इन बिल्ली के बच्चे को ढूंढना आश्चर्यजनक था. 
वीडियो देखने के लिए इस लिंक को चटकाइए https://vimeo.com/235370999

Thursday, October 12, 2017

झारखंड में आधी शादियां गैरकानूनी!


कसम से दिल को छू गया.... मजा आ गया.... अपना बिहार... अपनी कला... मधुबनी पेंटिंग ... मधुबनी स्टेशन

पूर्व मध्य रेलवे के मधुबनी स्टेशन का नाम जल्द ही 'गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स' में दर्ज हो सकता है. इसके लिए यहां दीवारों पर करीब 7000 से अधिक वर्ग फुट में मिथिला पेंटिंग उकेरी जा रही है. किसी भी लोक चित्रकला क्षेत्र में इतने बड़े एरिया में पूरे वर्ल्ड में एक रिकॉर्ड हो सकता है. गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में मात्र 4566.1 वर्ग फुट पेंटिंग दर्ज है. हालांकि भारत में सबसे बड़ी पेंटिंग का रिकॉर्ड मात्र 720 वर्ग फुट का है. इस लिहाज से मधुबनी स्टेशन का पेंटिंग पूरे वर्ल्ड की सबसे बड़ा पेंटिंग होगी. यहां 46 छोटे व बड़े थीम में बांट कर एक सौ से अधिक कलाकार श्रमदान कर रहे हैं








Wednesday, October 11, 2017

बाप को नहीं, ससुर को तो चुन सकते हैं...

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राम मनोहर लोहिया पुण्य -
'दूसरे देशों में जहां विज्ञान की तरक्की हुई है, वहां पहले वैज्ञानिक, फिर औजार, फिर इमारत रही है. हमारे देश में पहले इमारत, फिर औजार फिर वैज्ञानिक. वैज्ञानिक के दिमाग क्या सोच रहे? उसके दिमाग  में तो सिर्फ कूड़ा भरा है. आजकल जितने वैज्ञानिक हैं, जानते हैं उनकी क्या इच्छा रहती है? अपने बाप को तो वे चुन नहीं सकते, कोई नहीं चुन सकता, लेकिन कम से कम अपने ससुर को तो चुन सकते हैं. अगर ऐसा बढ़िया ससुर चुन लिया जाए, जिसका सरकार पर कुछ असर हो तो फिर विज्ञान की वैसी ही तरक्की हो जाएगी. खोज करने की जरूरत नहीं, सारा मामला वैसे ही ठीक हो जायेगा.'
--यह हिंदुस्तान इतना बेमतलब हो गया है--
'हिन्दुस्तान की आबादी बेहताशा बढ़ती जा रही है, किसी गड्ढे की तरफ या किसी चट्ठान से चकनाचूर होने.  इस गाड़ी को चलाने की जिन पर जिम्मेवारी है, उन्होंने इसे चलाना छोड़ दिया है. गाड़ी अपने आप बढ़ती जा रही है. मैं भी इस गाड़ी में बैठा हूं. यह बेतहाशा बढ़ती जा रही है. इसके बारे में मैं सिर्फ, इतना ही काम कर सकता हूं कि चिल्लाऊं और कहूं कि रोको. यह हिंदुस्तान इतना बेमतलब हो गया है कि तर्क से इसे चलाने के लिए आप तैयार नहीं हैं. यहां विस्फोट होना चाहिए जिस गति से हम लोग अपने प्रधानमंत्री के लिए समाधि स्थल बना रहे हैं, यह शहर जल्द ही जिंदा लाशों के बजाए मुर्दो का शहर बन जायेगा.  राष्ट्र जितना भी गरीब हो, जीवित या मृत सरकारी आदमियों पर उतना ही अधिक खर्च हो. भविष्य की पीढ़ियों को इन मूर्तियों, संग्रहालायों और चबूतरों से बहुत तेजी से हटना पड़ेगा.  समूचा हिन्दुस्तान कीचड़ का तालाब है, जिसमें कहीं-कहीं कमल उग आये हैं, कुछ जगहों पर अय्याशी के आधुनिकतम तरीके के सचिवालय, हवाई अड्डे, होटल, सिनेमाघर और महल बनाए गए हैं और उनका इस्तेमाल उसी तरह के बने-ठने लोग - लुगाई करते हैं. लेकिन कुल आबादी के एक हजारवें हिस्से से भी उसका कोई सरोकार नहीं है. बड़ी राजनीति देश के कूड़े को बुहारती है और छोटी राजनीति मोहल्ले के कूड़े को.'

ले लोटा सीनियर सिन्हा त बमकिए गए...

(2.5 मिनट में पढ़ें  ) 
भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का बमकना बंद होते नहीं दिख रहा है. पटना में उन्होंने कहा कि जिस तरह से पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह का बचाव किया जा रहा है, वह सही नहीं है. जिस तरह से केंद्रीय मंत्री जय शाह का बचाव कर रहे हैं उससे यह साफ है कि पार्टी ने हाल के वर्षों में जो उच्च नैतिक अधिकार हासिल किया था उसे खो दिया है. जिस तरह से केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल जय शाह के बचाव में कूद पड़े वह उचित नहीं है. वे केंद्रीय मंत्री हैं, जय शाह के चार्टड एकाउंटेंट नहीं. मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध करने वाले सिन्हा ने खबर छापने वाली वेबसाइट पर मानहानि का मुकदमा दायर करने का भी विरोध किया. उन्होंने उन ‘बहुत ही खास परिस्थितियों’ पर भी चिंता जताई जिसके तहत एडिशनल सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता को मानहानि का मुकदमा लड़ने के लिए कहा गया. हालांकि उन्होंने उस खबर पर कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया जिसमें जय शाह की संपत्ति में 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद बेतहाशा वृद्धि की बात कही गई थी. सिन्हा ने कहा कि यह जांच का विषय है जिसे कोई भी सरकारी एजेंसी कर सकती है. गौरतलब है कि वेबसाइट 'द वायर' ने बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी से जुड़ी एक खबर प्रकाशित की है. खबर में रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज (आरओसी) के आंकड़े को उद्धृत करते हुए कहा गया कि जय शाह के मालिकाना हक वाले 'टेंपल इंटरप्राइज' की संपत्ति में वर्ष 2015-16 के दौरान 16,000 गुना और उससे पहले के साल से करीब 80 करोड़ रुपये का इजाफा हुआ.

चित्रकूट के ऐसे जीवट को तिलक करें

(3.5 मिनट में पढ़ें )
रहा होगा कभी चित्रकूट राम के वनगमन का पहला पड़ाव, रहे होंगे कभी तुलसीदास भी. लिखा होगा कि चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़, तुलसीदास चंदन घिसैं तिलक देत रघुवीर. लेकिन अब जो नाना जी देशमुख चित्रकूट पर विकास, रोजगार और शांति का चंदन लगा गए हैं, ना वह किसी के वश का है नहीं जो उसे मिटा दे. नाना जी देशमुख रहे होंगे कभी जनसंघ या आरएसएस में भी. लेकिन उन्हों ने जेपी मूवमेंट में जब जेपी पर पुलिस की लाठियां चलीं, तो वह नाना जी देशमुख ही थे जिन्हों ने बढ़ कर किसी फ़ौजी की तरह जेपी को कवर किया और सारी लाठियां खुद खाईं, जेपी को एक लाठी नहीं लगने दी. लोग पीठ या पैर पर पुलिस की लाठियां खाते हैं, नाना जी ने जेपी को अपनी पीठ के नीचे लेते हुए सीने पर पुलिस की लाठियां खाई थीं. यह फ़ोटो अखबारों में छपी थी. इंडियन एक्सप्रेस ने इसे पहले पेज पर तब छापा था. सोचिए कि पुलिस की वह लाठी अगर जेपी पर पड़ी होतीं तो क्या हुआ होता जेपी का और क्या हुआ होता देश का? नाना जी जेपी के साथ ही जेल गए. 60 साल की उम्र में नाना जी सक्रिय राजनीति त्याग कर समाज सेवा की ओर मुड़ गए. वह महाराष्ट्र के रहने वाले थे. लेकिन समाज सेवा के लिए उन्हों ने उत्तर प्रदेश चुना. उत्तर प्रदेश में सब से पिछडा ज़िला गोंडा. वहां भी उन्हों ने महात्मा गांधी की तर्ज़ पर जेपी की पत्नी प्रभावती के नाम पर प्रभावती ग्राम ही बनाया. ठीक वैसे ही जैसे गांधी ने दक्षिण अफ़्रीका में टालस्टाय आश्रम या देश में वर्धा या साबरमती आश्रम बनाया था. बल्कि नाना जी ने दो कदम आगे जा कर इस आश्रम को शिक्षा और रोजगार से जोड़ा. लेकिन जल्दी ही वह चित्रकूट चले गए. आज नाना जी देशमुख नहीं हैं पर कोई धृतराष्ट्र जैसा जन्मांध भी जो चित्रकूट चला जाए तो उसे उन का काम साफ दिखेगा, सुनाई देगा. वहां के लोगों खास कर आदिवासियों के बच्चों के लिए प्राइमरी से स्नातकोत्तर तक की शिक्षा, भोजन और चिकित्सा मुफ़्त है. कम से तीन दशक से. इतना ही नहीं वहां के लोगों को रोजगार तक वह सिखाते थे. कि कैसे काम सीख कर खुद का  रोजगार वह शुरू कर सकें. तरह तरह के रोजगार. तमाम पिछडे़पन के बावजूद चित्रकूट आज तरक्की की राह पर है. न सिर्फ़ तरक्की बल्कि शांति की राह पर. नहीं तय मानिए कि अगर नाना जी देशमुख चित्रकूट न गए होते तो आज की तारीख में चित्रकूट दंतेवाडा से भी ज़्यादा बड़ा खतरनाक मोड़ पर खड़ा होता. चित्रकूट क्या है पथरीला इलाका है. जहां आज भी खेती भगवान भरोसे होती है. ऐसे में नाना जी देशमुख चित्रकूट पहुंचे थे. और चित्रकूट का नक्शा बदल दिया.
साभार- डी. पांडेय के एक लेख का संपादित  अंश

मंत्रीजी, होम क्वरंटाइन में घुमे जा रहे हैं

 बतौर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री कोरोनाकाल में अश्वनी चैबे की जिम्मेवारियां काफी बढ जानी चाहिए। क्योंकि आम लोग उनकी हरेक गतिविधियों खासक...