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इतिहास गवाह है कि पत्रकारिता ने बड़े-बड़े आंदोलनों और क्रांतियों को जन्म दिया. विश्व स्तर पर ऐसी घटना बार-बार घटी, जब पत्रकारिता की अपार शक्ति, उसकी लोकप्रियता और उसकी आलोचना से भयभीत होकर उसे पाबंदी की जंजीरों से जकड़ा दिया गया. पत्रकारिता की शक्ति का जिक्र करते हुए अकबर इलाहाबादी ने कहा था,
'खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो'.
पत्रकारिता का यही रूप हमें 1857 की बगावत के समय भी देखने को मिलता है. उस समय भारतीय पत्रकारों ने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से अंग्रेजों की नींद हराम कर रखी थी. इस पर काबू पाने के लिए सख्त कानून का सहारा लेकर बागी पत्रकारों को फांसी दी गई और पत्रिकाओं पर प्रतिबंध लगाया गया और उसके प्रकाशित अंक जब्त कर लिए गए. इस विद्रोह के समय पत्रकारों के दो गुट सक्रिय थे एक गुट सरकार का वफादार था वह अपने पत्रिकाओं में वही खबरें प्रकाशित करता था जो सरकार के हित के अनुरूप होती और उसके जुल्म और अत्याचार पर पर्दा डालने उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य हो गया था. पटना का 'अखबार ए बिहार' इसी श्रेणी में आता है. दूसरा गुट बागी पत्रकारों का था वह अंग्रेजों के कार्यों और उनके अत्याचार और तिरस्कार की आलोचना करना और उनके बुरे उद्देश्य से जनता को अवगत कराना एक पत्रकार की हैसियत से अपना कर्तव्य समझता था और अपने आदर्शों से समझौता करना उसके सिद्धांत के विरुद्ध था. दिल्ली के 'देहली उर्दू अखबार', 'अखबार उल जफर' और 'सादिक उल अखबार' इसी श्रेणी में आते हैं. उस दौर के कई अखबारों के बहुत से अंक खुदाबख्श पुस्तकालय पटना में सुरक्षित हैं.
जून 1857 में प्रकाशित एक विज्ञापन पर नजर डालें- '
जो व्यक्ति सरकार के साथ बगावत रखता हो या बागियों का मित्र हो या सहायक व मददगार या ऐसी बात करें जिससे सरकार का अपमान होता है, प्रमाण मिलने पर साहब कमिश्नर के आदेशानुसार निम्नलिखित सजा का योग्य होगा-
जुर्म- जो व्यक्ति सरकार के साथ बगावत रखता है.
सजा- आजीवन कारावास और फांसी.
जुर्म- जो व्यक्ति मित्र हो या ऐसी बात करें जिससे सरकार का अपमान होता है.
सजा- 7 साल कैद.
जुर्म- जो व्यक्ति बागी का सहयोगी हो.
सजा- 14 साल कैद.
यह अखबार बिहार के सम्मानित पाठक इस कानून पर विशेष ध्यान दें और हर समय इसका ख्याल रखें कि इस प्रकार की कोई गलती उनसे प्रकट ना हो.
साभार- पुस्तक '1857 और बिहार की पत्रकारिता'