Saturday, November 4, 2017

मूर्ख बनने... ठगे जाने पर मजा आ रहा है. मन मस्त हुआ जा रहा है...

(3.5 मिनट में पढ़ें ) 
घोटालों से भरी इस घनघोर दुनिया में मूर्ख बनने का मजा ही कुछ और है. वैसे हर चालाक आदमी दूसरे को मूर्ख बनाने पर आमादा है. तरह- तरह की शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ चालाक लोगों की तादाद बढ़ने लगी है. कहते हैं हर एक को कभी न कभी कहीं न कहीं महाठग मिल जाता है, लेकिन आजकल ठगों में आपसी भाईचारा बन गया है. मिल- जुलकर आपसी सद्भाव से चलने की क्रिया भाईचारे को बढ़ा रही है. गांव, कस्बों, नगरों महानगरो... में संभ्रांत ठगों का बसेरा है. हर गली कूचे में विस्तृत भव्य भवनों में ऊंची- ऊंची इमारतों में बसे ऊंचे- ऊंचे दफ्तरों में, थाना- कोतवाली में छोटी- बरी अदालतों में, ग्राम- सभा से लेकर सचिवालय, संसद भवन में, मंदिरों, मस्जिदों में खेलों के मैदानों से खेत- खलिहानों तक ठगों का सम्राज्य है.
हम तो जेन्युइन पैदाइशी खानदानी मूर्ख हैं. क्योंकि, हम जनता है. जनता को मूर्ख होना अनिवार्य है. मूर्खता के सभी लक्षण हम में मौजूद हैं. हम सभी पर विश्वास करते हैं. सभी के सब बातों पर घोर विश्वास करते हैं. आज से नहीं बहुत पहले से सन 47 से भी बहुत पहले से. विश्वास के कीटाणु हमारे खून में ही है और यह खून हमें अपने पुरखों से मिला है. ठगों की दुनिया में कई बार ठगे गाए, बार-बार ठगे गए, लेकिन विश्वास करने से बाज नहीं आए. हर बार ठगे जाने पर कसम खाते हैं कि फिर कभी किसी पर विश्वास नहीं करेंगे, लेकिन रेणु के 'हीरामन' की तरह कई बार कसम खाते हैं और भूल जाते हैं. फिर विश्वास करते हैं और ठगे जाते हैं. बार-बार ठगे जाना हमारी नियति है और ठगे जाना ही अपनी नियति है. तो ठगे जाने का अफसोस कैसा? अब तो ठगे जाने पर मजा आ रहा है. मन मस्त हुआ जा रहा है. कोई दोस्त बनकर ठग रहा है, तो कोई हमदर्द बन कर कोई हमराही बनकर ठग रहा है.... तो कोई रहनुमा बन कर.... हम घर में ठगे जा रहे हैं और घर के बाहर भी. हर द्वार हर बार, बार- बार ठगे जा रहे हैं, लेकिन हमारे भीतर बसा हीरामन अभी भी संभल नहीं पा रहा है....
साभार - चमचाय तस्मै नमः

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