Monday, December 15, 2008

मुबंई हमले के बाद का राजनीतिक बंवडर


मुबंई आतंकवादी हमले के बाद राजनीतिक और कूटनीतिक घटनाएं तेजी से बन-बिगड़ रही हैं। इधर अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस भारत आयी और पाकिस्तान को भारत के साथ सहयोग करने जैसे घिसे-पिटे बयान देकर चली गयीं, उधर पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ जरदारी ने वांक्षित आतंकवादियों को भारत को नहीं सौंपने की हेकड़ी दिखाकर स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तान सुधरने वाला नहीं है और न ही आतंकवादियों के खिलाफ निर्णायक कारZवाई करने की उनकी इच्छा है। सबसे जो उल्लेखनीय स्थिति है वह यह कि भारतीयों का गुस्सा थम नहीं रहा है। खासकर सभ्रांत लोगों का कैंडिल यूनियन का जिनकी ज्वलंत राष्ट्रीय मुद्दों पर भूमिका सीमित ही रहती है। पहली बार ऐसा हुआ कि आतंकवादी हमले में आम आदमी के साथ ही साथ सभ्रांत लोग भी मारे गये। इसी कारण नेताओं के खिलाफ कैंडिल यूनियन का ज्वार फूटा। ऐसे में यूपीए सरकार पर दबाव पड़ना ही था। केन्द्रीय गृहमंत्री िशवराज पाटिल और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देशमुख और गृहमंत्री आरआर पाटिल की कुर्सी छिनी गयी। संप्रग सरकार जोर-शोर से कह रही है कि सुरक्षा की नीतियां बदलेगी। सुरक्षा बलों और गुप्तचर एजेिन्सयों को और आधुनिक व वैज्ञानिक बनाया जायेगा, पाकिस्तान के साथ कड़ाई से पेश आया जायेगा, फेडरल जांच एजेन्सी बनेगी और आतंकवादियों को घटना के अंजाम देने के पहले ही पकड़ लिया जायेगा। देखने-सुनने में यह सब अच्छा उस हर नागरिक को लगेगा जो सही में देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं और जिनमें आतंकवादियों को नकेल पहनाने मे विफल राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश उबल रहा है।मुबंई आतंकवादी हमले के बाद सत्ता और विपक्ष की राजनीति के अलावा ढेर सारे सवाल अनुतरित हैं। जिनके उत्तर की प्रतीक्षा और सच जानने की लालशा हमारे जैसे लेखकों और नागरिकों को है। वे सभी पहलू हैं, जिसमें बर्बर आतंकवादियों को निर्दाZष लोगों को मौत के घाट उतारने में सहयोग मिला, संसरक्षण मिला। सच क्या है? कही कुछ छुपाया तो नहीं जा रहा है। इसलिए कि स्थानीय वीभिषणों की भूमिका अभी तक उजागर ही नहीं हुई है। ऐसी स्थिति में शक की सुई घुमनी कहीं से भी अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता है।अब हम बात करते हैं मुबंई आतंकवादी हमले के बाद पक्ष और विपक्ष की राजनीति की। भारत दुनिया में शायद पहला ऐसा देश है जहां पर राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न को भी दलीय चस्मे और वोट की राजनीति के तहत देखा जाता है। यही कारण है कि अमेरिकी वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर अलकायदा के हमले के बाद दुनिया के प्राय: सभी देशों ने नयी-नयी जांच एजेिन्सयां बनायी, गुप्तचर एजेिन्सयों को आधुनिक व वैज्ञानिक बनाये। इतना ही नहीं बल्कि कड़े कानून भी बनाये गये ताकि आतंकवादियों को कड़ी सजा मिल सके। इसके विपरीत हमारे देश में क्या हुआ? एक पोटा कानून था जिसे भी वोट और दलीय राजनीति में शहीद कर दिया गया। काफी पहले से देश के अंदर में एक ऐसी जांच एजेन्सी और एक ऐसे कानून की मांग उठी है जो आतंकवाद का मुकाबला कर सके और जिसकी सीमाएं राज्यों की बाधा से परे हो। मुबंई आतंकवादी घटना के बाद यूपीए सरकार ने कड़े कानूनों से परहेज तो जरूर किया है पर उसने एक फेडरल जांच एजेन्सी बनाने पर राजी हो गयी है। इसके लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सर्वदलीय बैठक भी बुलाई थी। दुंर्भाग्य यह है कि फेडरल जांच एजेन्सी के गठन पर भी राजनीति शुरू हो गयी है। मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने जरूर इस मसले पर यूपीए सरकार के समर्थन में खड़ी है।पर वामपंथी राजनीतिक दलों ने विरोध में राजनीति शुरू कर दी है। माकपा, भाकपा, फारर्वड ब्लाक और आरएसपी ने संयुक्त बैठक में प्रस्ताव पारित कर फेडरल जांच एजेन्सी के गठन के प्रयास का विरोध किया और इसे राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण करार दिया है। सोचने-समझने की बात है कि अगर इस तरह के रवैया राजनीतिक दलों का रहेगा तो क्या देश रक्तरंजित आतंकवाद से लड़ पायेगा?हमें अमेरिकी वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद की अमेरिका की राजनीतिक स्थिति को याद करनी चाहिए। अमेरिकी दलों और नागरिकों की एकता को भी याद करनी चाहिए। अलकायदा के हमले के लिए जार्ज बुश सरकार की विफलता नहीं खोजी गयी, विरोध में तीखी प्रतिक्रिया नहीं हुई। राजनीतिक दल और नागरिक संगठन सभी जार्ज बुंश के समर्थन में खड़े हो गये। इतना ही नहीं बल्कि आतंकवादियों को उनके मांद में जाकर हमला करने का संकल्प और समर्थन मिला। अफगानिस्तान के तालिबान सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए बुश को पूरा समर्थन मिला। यही कारण है कि बुश अफगानिस्तान में तालिबान की सता समाप्त करने में कामयाब हुए। सबसे बड़ी बात यह है कि अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठन दुबारा अमेरिका में हमला करने का साहस तक नहीं कर सके। इसके उलट हमारे देश की राजनीतिक स्थिति को देख लीजिए। कमियां निकालने और विफलता को ज्वार चढ़ाने में समय गंवाया जाता है। विपक्ष ही नहीं सत्ता प्क्ष का रवैया भी कुछ ऐसा ही होता है। यूपीए सरकार का कहना है कि एनडीए सरकार के समय भी कारगिल कांड, संसद हमला कांड और इंडियन एयर लाइन्स अपहरण जैसे कांड हुए थे। इस तरह के बयान का मतलब क्या हो सकता है? मतलब है अपनी विफलताओं पर पर्दा डालना। वामपंथी दलों ने एक और राग छेड़ी है। वामपंथी दलों का कहना है कि आतंकवाद का मुद्दा भारत संयुक्त राष्ट्र संघ में ही उठाये। वामपंथी दलों को शायद िशमला समझौता याद नहीं है। िशमला समझौते में पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय मुद्दों को आपसी बातचीत से हल करने की संहिता है। अगर पाकिस्तान हमारे देश में आतंकवादी हमलावरों को संरक्षण दे रहा है तो प्रतिकार करने का हमारा अधिकार सुरक्षित है। राजनीतिक कदम जो उठे हैं उसे भी पर्याप्त नहीं माना जा सकता है। केन्द्रीय गृहमंत्री, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और गृहमंत्री को हटा देने मात्र से नागरिकों की आशांकाएं या चितंाए दूर नहीं हो सकती हैं। सबसे जो उल्लेखनीय तथ्य है वह यह कि मुबंई आतंकवादी हमले की पूरी व्यूह रचना उजागर नहीं हुई है। यह बात गहरी पैठ बन चुकी है कि भारत सरकार और महाराष्ट्र सरकार कहीं कुछ जरूर छुपा रही है। कोई आतंकवादी घटना बिना स्थानीय सहयोग और संरक्षण के हो ही नहीं सकता हैं। किन-किन लोगों ने आतंकवादियों को साधन उपलब्ध कराये हैं, इसकी पूरी जानकारी जनता को क्यों नहीं उपलब्ध करायी जानी चाहिए। ताज होटल में कई आतंकवादीं पहले से ही जमे हुए थे। हथगोले पहले ही पहुंचाये जा चुके थे। ऐसा बिना होटलकर्मियों की मिलीभगत से संभव ही नहीं हो सकता है। रतन टाटा यह मान चुके हैं कि आतंकवादियों के हमले की पूर्व सूचना उनके पास मौजूद थी। तो क्या ताज होटल प्रबंधन को जिम्मेदार नहीं माना जायेगा। जिन ताजकर्मियों ने हथगोले अंदर पहुंचाने में मदद की थी उनके नाम क्यों नहीं उजागर किये जा रहे हैं।खतरनाक तो गुप्तचर एजेिन्सयों के बीच छिड़ा युद्ध है। हमारे गुप्तचर एजेिन्सयां एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रही हैं। नौसेना का कहना है कि हमले की पूरी गुप्तचर जानकारी मिली ही नहीं थी। गुप्तचर एजेिन्सयों को आपस में लड़ने-झगड़ने से देश की सुरक्षा ही प्रभावित होगी। ऐसी प्रक्रिया तत्काल रोकी जानी चाहिए। जब तक राजनीतिक दलों और नागरिकों के बीच आतंकवाद को लेकर सर्वानुमति नहीं बनेगी तकतक हम आतंकवद के खूनी पंजों को नहीं मरोड़ सकते हैं। हमें अमेरिका की ओर तांकने की नीति छोड़नी होगी। स्वयं के बल पर पाकिस्तान को शांति का पाठ पढ़ाना होगा और आतंकवादियों को नेस्तनाबुत करना होगा। पर क्या हमारी राजनीतिक व्यवस्था अपना दलीय चेहरा और वोट की राजनीति से मुक्त हो सकती है। अगर नहीं तो फिर हम इसी तरह आतंकवाद का िशकार होते रहेंगे।

No comments:

Post a Comment

इस खबर पर आपका नजरिया क्या है? कृप्या अपने अनुभव और अपनी प्रतिक्रिया नीचे कॉमेंट बॉक्स में साझा करें। अन्य सुझाव व मार्गदर्शन अपेक्षित है.

मंत्रीजी, होम क्वरंटाइन में घुमे जा रहे हैं

 बतौर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री कोरोनाकाल में अश्वनी चैबे की जिम्मेवारियां काफी बढ जानी चाहिए। क्योंकि आम लोग उनकी हरेक गतिविधियों खासक...