Tuesday, December 16, 2008

भारत-अमेरिकी संबंधभारत


और अमेरिका का संबंध प्यार और घृणा का अनूठा नमूना है। भारतीय स्वतंत्रता संघशZ के दिनों में राश्ट्रीय आंदोलन को अमेरिकी उदारपंथियों का सामान्य तौर पर और पिछली सदी के तीसरे दषक में राश्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट के लंबे प्रषासन के दौरान अमेरिकी प्रषासन एवं जनमत का स्पश्ट समर्थन ब्रिटेन के प्रति था, जो अनुदारवादियों और सम्राज्यवादियों के लिए एक इरिटेंट था विषेशतौर पर द्वितीय विष्वयुद्ध के दौरान। ब्रिटेन के प्रख्यात प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का, जिनकी यह टिप्पणी कि `वे ब्रिटिष सम्राज्य के विघटन का नेतृत्व करने के लिए प्रधानमंत्री नहीं बने हैं, विष्व भर के उदारपंथियों के लिए नागवार था। परंतु अमेरिका में इसपर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी और चर्चिल एवं रूजवेल्ट में मतभेद का यह एक विषेश मुद्दा था। अत: यह अपेक्षा की जाती थी कि स्वतंत्र भारत और अमेरिका का आपसी संबंध दोस्ताना और मधुर होगा। सामान्यतौर पर दो बड़े जनतांत्रिक देषों के पारस्परिक रिष्ते दोस्ताना तौर पर प्रगाढ़ होने की अपेक्षा दोनों पक्षोें में थी और दोनों का प्रारिम्भक रूझान काफी समारात्मक था। परंतु दुर्भाग्य से समस्याओं की राजकीय व्यवस्था पर बुनियादी तौर पर आम सहमति होने पर भी कालांतर में विभेद के स्वर तीव्र होते गए। अमेरिका और भारत के संबंधों की अपेक्षायें इससे भी आंकी जा सकती है कि द्वितीय विष्वयुद्ध की संध्याकाल में सैनफ्रांसिस्को में राश्ट्र संघ की स्थापना सम्मेलन में भारतीय उपनिवेष को भी पूर्ण सदस्य बनाया गया था। इस सम्मेलन में स्पश्टतौर पर अमेरिका के समर्थन से ही यह संभव हो पाया था।अत: 1949 में जब भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अमेरिका की प्रथम यात्रा की तो उनका भव्य स्वागत हुआ था। दुर्भाग्य से भारत-अमेरिका संबंध में तनाव की ‘ाुरूआत भी पंडित जी की इस यात्रा से ‘ाुरू भी हुई। कहा जाता है कि न्यूयार्क में प्रमुख उद्योगपतियों द्वारा आयोजित रात्रि भोज के दौरान किसी धन कुबेर ने जवाहरलाल जी से यह कहा कि प्रधानमंत्री जी आपको यह अहसास होना चाहिए कि आप अरबों डॉलर के नियंत्रकों के साथ भोज में ‘ारीक हैं। परोक्ष तौर पर उस महावाच का यह आषय था ि कइस बात पर आपको गर्व होना चाहिए। इसपर प्रत्यक्ष रूप से पंडित जी ने तो कुछ नहीं कहा लेकिन भारतीय राजदूत और अपने प्रतिनिधिमंडल के अन्य सदस्यों के बीच यह जरूर कहा कि `प् ींअम दमअमत उमज ेव उंदल पकपवजे ूीव ूमतम ेव पिसजीसल तपबी´। अमेरिकी मीडिया में यह प्रकाषित हो गई जिसपर प्रतिकूल प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। इसी दौरान अमेरिका की दिग्गज वाहन निर्माता कंपनी जनरल मोटर्स की भारत में `प्रवेष प्रस्ताव´ को भारत सरकार ने ठुकरा दिया था और ब्रिटिष एवं इटालियन कंपनियों को वाहन निर्माण के क्षेत्र में पूंजी निवेष की अनुमति दी थी जिसके तहत ब्रिटेन की मौटीस मोटर्स और इतावली कंपनी फीयट को भारत में पूंजी निवेष की सुविधा मिली। दूसरा प्रतिकूल प्रभाव दोनों देषों के रिष्ते पर पड़ना प्रारम्भ हो गया। इसी प्रकार भारत के औद्योगिक विकास में अमेरिकी निवेष बुनियादी क्षेत्रों जैसे इस्पात आदि में न होकर कृिश विकास के प्रति होना भी संबंधों के सकारात्मक विकास पर प्रतिकूल असर पड़ना प्रारम्भ हो गया था। इसी बीच `षीत युद्ध´ प्रारम्भ हो गया। द्वितीय विष्व युद्ध के दौरान याल्टा में युद्ध के तीनों प्रमुख विजेताओं - रूजवेल्ट, चर्चिल एवं स्टालीन के बीच आपसी समझौता के तहत पिष्चमी राश्ट्रों और सोवियत रूस के बीच हुई `स्फेयर ऑफ इन्लूयंस´ संबंधी समझौते को मास्को की सह पर ग्रीस के साम्यवादियों ने तोड़कर गुरिल्ला युद्ध प्रारम्भ कर दिया था। यह पिष्चमी राश्ट्रों विषेशतौर पर इसके नेता अमेरिका को काफी नागवार लगा था और प्रतिक्रिया स्वरूप राश्ट्रपति ट्रूमन, जो रूजवेल्ट के निधन के पष्चात्त उपराश्ट्रपति होने के नाते ह्वाईट हाऊस के नये प्रभारी थे, अपने दस सूत्रीय कार्यक्रम की घोशणा की जिसे इतिहास `ट्रूमन डॉक्ट्रीन´ के रूप में जानता है। इसी संदर्भ में सोवियत रूस की विस्तारवादी नीति पर ब्रेक लगाने के लिए उत्तर अटलांटिक संगठन (नाटो) की स्थापना हुई जिसकी कई दषकों तक ‘ाीतयुद्ध संचालन में प्रमुख भूमिका रही। ‘ाीतयुद्ध के दरम्यान विषेशतौर पर 1952 में अमेरिकी प्रषासन में तब्दीली आने के साथ विदेष नीति में भारी बदलाव आया। अमेरिकी इतिहास विषेशतौर पर पांचवां दषक विषेशतौर पर उल्लेखनीय है क्योंकि यह अवधि सिनेटर मैकार्थी और जॉन फॉस्टर के काले कारनामों से प्रसिद्ध है। इस तरह राश्ट्रपति आइजनऑवर के प्रथम ‘ाासकीय काल - ‘ाीतयुद्ध की भयंकर लहर की चपेट का षिकार हुआ। सोवियत रूस और चीन, जहां 1949 में कम्युनिश्टों ने राश्ट्रवादियों को पराजित कर चीन की मुख्य भूमि पर अपना ‘ाासन स्थापित करने में सफल हुआ था, की घेराबंदी करने के उद्देष्य से सैनिक संगठनों का विष्वव्यापी ताना-बाना बुनने की नीति अपनाई थी जिसके तहत सीटो - साउथ-ईस्ट ट्रीट्री संगठन, आनसाज - आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि, सेन्टो - मेडो - मिडिल ईस्ट यानि मध्य-पूर्व सैन्य संगठन आदि सैनिक संबंधों का ताना-बाना ऐसा बुना कि जो देष इसकी सदस्यता से इंकार किए वे `अनैतिक´ और अमेरिका विरोधी घोिशत कर दिए गए।भारत की नीति स्वाभाविक तौर पर इसके भिन्न थी। सदियों की गुलामी से जर्जर उपनिवेषों को एकजुट करना और विष्वमंच पर इनकी विषेश पहचान बनाने की थी। सम्राज्यवाद के अवषेश की पूर्ण आहुती के साथ एषिया एवं अफ्रीका के नवोदित राश्ट्रों की विष्व मंच पर विषेश पहचान बनाने की भारतीय नेतृत्व की हर संभव कोषिष रही। इस दिषा में इंडोनेषिया की स्वतंत्रता के प्रष्न पर भारत ने 1946 में नई दिल्ली में प्रथम `एषियन रिलेषन्स कांफ्रेंस´ का आयोजन कर विष्व समुदाय को नये भारत की विदेष नीति के संबंध में स्पश्ट संकेत दे दिया था। संयोगवष इस सम्मेलन में राश्ट्रपिता महात्मा गांधी का उद्बोधन आज भी प्रासंगिक माना जाता है। इस सम्मेलन के आयोजन से भारत ने विष्व मंच पर एक अच्छी ‘ाुरूआत की जिसकी चरमोत्कशZ अभिव्यक्ति 1955 में इंडोनेषिया के रमणीक ‘ाहर बांडुंग में हुई, जिसे इतिहास बांडुंग सम्मेलन के नाम से पुकारता है। इस सम्मेलन की सफलता ने भारत की विदेष नीति में चार चांद लगा दिए थे। लेकिन यह अमेरिकी नीतिकारों को काफी अखरा था और उनकी नजर में अंतर्राश्ट्रीय स्तर पर गुटनिरपेक्षता एक अनैतिक प्रयास था जो सोवियत संघ का तरफदार था। चीन भी विष्व मंच पर इसी बांडुंग सम्मेलन में धमाकेदार तौर पर भारत के `पैट्रोनेज´ में अपनी उपस्थिति जताने में सफल हुआ। यह बात दूसरी है कि बाद में चीनी नेताओं ने इसे अनदेखा किया।भारत-अमेरिकी संबंधों में 1962 में चीनी आक्रमण के समय प्रगाढ़ता अवष्य आई। तत्कालीन राश्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी राश्ट्रपिता महात्मा गांधी, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विषेशतौर पर प्रषंसक थे। भारत के विरूद्ध चीनी आक्रमण को उनके ‘ाासन ने एक सुनहले अवसर के तौर पर अपनाया और भरपूर सैनिक सहायता दी तथा जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसी सिलसिले में वाषिंगटन की यात्रा की थी तो उनकी सम्मानपूर्वक अच्छी आवभगत हुई थी। नेहरू की इस यात्रा में संबंधों में पिछले दिनों की खटास का नाम मात्र का भी असर नहीं दिखा। लेकिन राश्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या के पष्चात्त जॉनसन के राष्ट्रपतित्व काल में दोनों देषों के संबंधों में खटास का बेताल पुन: गाछ पर जा बैठा। वियतनाम की समस्या विष्व मंच पर प्रखर तौर पर उभर कर आई और भारत को अमेरिकी नीति का पुरजोर तौर पर विरोध करने की मजबूरी थी। वियतनाम में अमेरिकियों ने फ्रांसीसी सम्राज्यवादियों की जगह ली। फ्रांस की वहां नाम मात्र की उपस्थिति थी। परंतु वियतनाम युद्ध वशोZं तक खींचता चला गया जिसमें अमेरिका को जान-माल की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। इस संदर्भ में भारत-अमेरिकी संबंधों में आई तनाव वियतनाम से संबंधित पेरिस ‘ाांति वार्ता में प्रथम चरण में भारत को ‘ारीक नहीं किया गया था। फिर राश्ट्रपति रिचर्ड निक्सन का ‘ाासनकाल आया जिसमें अंतर्राश्ट्रीय विशय के प्रसिद्ध विद्वान हेनरी किसिंगर को अपना विदेष सचिव नियुक्त किया गया। नई दिल्ली में सत्ता परिवर्तन हो चुका था और लालबहादुर ‘ाास्त्री जी अल्पकालीन प्रधानमंत्रित्व (1964-1966) के पष्चात्त इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया। इस दरम्यान भारत की आंतरिक राजनीति में काफी कुछ गड़बड़झाल रहा और 1969 में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी में भारी विभाजन हुआ। इस अलगाव का नेतृत्व मुख्यतौर पर उन लोगों ने किया था जिन्होंने 1966 में लालबहादुर ‘ाास्त्री के निधन के पष्चात्त इंदिरा गांधी को देष की सर्वोच्च सत्ता पर अवस्थित किया था।कांग्रेस पार्टी के इस विभाजन से केंद्र की सरकार अल्पमत में आ गई थी। परिणामस्वरूप उसे संसद में अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए उसे वामपंथियों - कम्युनिश्टों पर निर्भर होना पड़ रहा था। स्थिति की नाजुकता पहचानते हुए संसद (लोकसभा) को भंग कर 1971 में आम चुनाव हुआ जिसके फलस्वरूप इंदिरा गांधी को भारी बहुमत मिला। संसद के विघटन के पूर्व 14 बैंकों के राश्ट्रीयकरण कर इंदिरा जी ने देष के आम लोगों में यह धारणा स्थापित कर दी थी ि कवे आर्थिक परिवर्तन की हिमायती हैं और कांग्रेस से अलग हुए गुट इसके विरोधी हैं। भारत में 1971 के आम चुनाव के पष्चात्त पाकिस्तान में भी आम चुनाव हुए जिसके परिणामस्वरूप बंगबंधु ‘ोख मुजीबुरZ रहमान की पार्टी आवामी लीग का पाकिस्तानी संसद में बहुमत हो गया था जो देष के `असली´ सत्ताधारी ग्रुप `पंजाबी लॉबी´ को नागवार लगा था। इसके पष्चात्त सेना ने दूसरी बार सर्वोच्च सत्ता पर कब्जा जमा लिया और जनरल याहया खां देष के सर्वोच्च ‘ाासक बन बैठे। बंग्लादेष के निर्माण में भारत की विषेश भूमिका थी। इससे अमेरिका जो ब्रिटिष, फ्रांसीसी, डच एवं पुर्तगीज सम्राज्यवादियों का इस क्षेत्र में अपने को एकमात्र उत्तराधिकारी समझ बैठा था, को गहरी चोट लगी और तिलमिला कर राश्ट्रपति निक्सन ने अपनी आणविक अस्त्रों से लैस नौ सेना के `छठवें बेड़े´ को भारत पर दबाव बनाने के लिए बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना कर दिया था। लेकिन भारतीय रणनीतिकार और फौज ज्यादा चुस्त और चालाक निकली और उसके पहुंचने से पूर्व ही युद्ध के इतिहास का सबसे बड़ा सैनिक समर्पण करा लिया गया था। पाकिस्तानी सेना की लगभग नब्बे हजार फौजियों ने जनरल नियाजी के नेतृत्व में भारतीय सेना के पूर्वी एरिया कमांडर जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुके थे। लगता है इस स्थिति से राश्ट्रपति निक्सन, जिन्हें कोल्डवारियर के रूप में अंतर्राश्ट्रीय समुदाय में देखा जाता था, बौखलाकर अपने विदेष सचिव हेनरी किसिंगर को चीन से दोस्ती करने के लिए हरी झंडी दे दी थी और जिसका उपयोग उन्होंने पाकिस्तानी राजधानी इस्लामाबाद से बीजिंग की सीधी यात्रा के लिए किया था। तब से भारत-अमेरिकी संबंध में ‘ाीत युद्ध के उपरांत भी अंदरूनी अपनापन नहीं बन पाया। 1998 में पोखरण द्वितीय केे कारण अमेरिका और उसके सहयोगी पुन: बौखला गए थे और भारत की आर्थिक नाकेबंदी करने की भरपूर कोषिष की गई। जापान, आस्ट्रेलिया, कनाडा और स्कैंडनेवियन देषों ने इसमें काफी सक्रियता दिखाई थी। सुरक्षा परिशद् के सदस्य देषों में सिर्फ रूस और फ्रांस ने ही हमारे प्रति सहानुभूति दिखाई थी।
फिर 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार आई। डॉ. मनमोहन सिंह एक विद्वान अर्थषास्त्री रहे हैं और वे अमेरिका से निकटता के हिमायती रहे हैं। अत: उन्होंने हिम्मत करके अमेरिका के साथ 123 संधि की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी। इसमें संयुक्त गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी का समर्थन उन्हें प्रारम्भ से ही था। स्पश्ट है कि इतनी महत्वपूर्ण संधि करने की बात वे सोनिया गांधी की सहमति के बिना सोच भी नहीं सकते थे। परंतु वामपंथी सहयोगियों के दबाव में इसमें किंतु-परंतु लगता रहा जो अंतोगत्वा सरकार द्वारा विष्वास मत प्राप्त करने के पष्चात्त यह प्रकारण समाप्त हो गया। इस समझौते के पीछे राश्ट्रपति जॉर्ज बुष ने अपने प्रषासन की पूरी ‘ाक्ति लगा दी थी।अब राश्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा, जो जन्म और बचपन के पालन-पोशण से ही अंतर्राश्ट्रीय हैं और गरीब, अभाव, उपेक्षा की अनुभूति रखते हैं, भारत के प्रति उदार और दोस्ताना दृिश्ट रखेंगे। अपने चुनावी अभियान में पार्टी के अंदर उम्मीदवारी के दौरान हुए संघशZ तथा आम चुनाव में हनुमान जी की मूर्ति हमेषा लॉकेट के तौर पर पहने रखते थे, भारत केे प्रति सहयोगात्मक नीति अपनायेंगे, दूसरी विषेश अपेक्षा है। इसके अलावा हिलेरी िक्लंटन की विदेष सचिव के पद पर नियुक्ति भी हमारे लिए ‘ाुभ सूचक है। दोनों का अमेरिकी-भारतीय समुदाय से भी गहरा दोस्ताना संबंध है और यह समुदाय अमेरिकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में उत्तरोत्तर प्रभावषाली भूमिका अदा कर रहा है जो भारत-अमेरिका संबंधों में मधुरता के लिए सकारात्मक संकेत देता है। परंतु अमेरिका और पूरा विष्व जिस आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है और इससे निजात पाने के लिए सभी अंधकार में भी समुचित समाधान टटोल रहे हैं एक ऐसी गंभीर स्थिति को जन्म देता है जहां भारत को ‘ाायद अपने स्वयं के बूते पर वैिष्वक मंदी से उबरने का रास्ता खोजना पड़ेगा। 26/11 को मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले के संदर्भ में अमेरिकी नीति भारत-अमेरिकी संबंधों की प्रगाढ़ता की गति तय करेगा।

No comments:

Post a Comment

इस खबर पर आपका नजरिया क्या है? कृप्या अपने अनुभव और अपनी प्रतिक्रिया नीचे कॉमेंट बॉक्स में साझा करें। अन्य सुझाव व मार्गदर्शन अपेक्षित है.

मंत्रीजी, होम क्वरंटाइन में घुमे जा रहे हैं

 बतौर केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री कोरोनाकाल में अश्वनी चैबे की जिम्मेवारियां काफी बढ जानी चाहिए। क्योंकि आम लोग उनकी हरेक गतिविधियों खासक...