20वीं शताब्दी में कम्युनिज्म विश्व के तिहाई इलाके में पैठ बना कर वैश्विक पूंजीवाद को तगड़ी चुनौती दी. लेकिन, 21वीं शदी में लाल किला ढहा प्रतित हो रहा है. शायद लगभग पांच देशों चीन, क्यूबा, लाओस, उत्तरी कोरिया व वियतनाम में दमखम बचाखुचा रह गया है. हालांकि कई अन्य देशों में भी कम्युनिस्ट दलों को देखा-सुना जा सकता है. जैसे, अपने देश भारत में भी. बतौर, एक अल्पसंख्यक राजनीतिक दल के तौर पर. सामाजिक न्याय का ताना-बाना बुनने वाली कम्युनिस्ट पार्टियां पानी के भाप की तरह उड गईं. ना कोई भीड, ना कोई आंदोलन. इनके कार्यालयों में जा कर देंखे- दिवारों पर महान नेताओं की तस्वीरें, तख्तों पर रखीं आदर्श किताबें तो दिख जाएंगी, लेकिन कुर्सियां खाली नजर आएंगी. इनके नताओं के घरों में जाकर देखें, वे अपनी दिनचर्या के काम-काज में मशगूल दिखेंगे. वहां भी आम आदमी नदारद. कोई आवाजाही नहीं. इन नेताओं से अगर सबसे ज्यादा कोई देश में नाखुश हैं, तो वह हैं हमारे बुजुर्ग. विलुप्त होने के कगार पर खडी हैं, कम्युनिस्ट पार्टियां. एक बुजुर्ग ने कहा, 'मैं यह नहीं कहता कि आज हमें 20वीं शताब्दी वाला कम्युनिज्म चाहिए, लेकिन मौजूदा हालात में कुछ अपेछाएं हैं...कुछ सुगबुगाइए ना...'
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मंत्रीजी, होम क्वरंटाइन में घुमे जा रहे हैं
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